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कारक में आता है; परंतु बहुधा वह लुप्त ही रहता है; जैसे, “उसे पेश किया गया”।

[सू०―सप्रत्यय कर्म कारक का उपयोग वाक्य-विन्यास के कारक-प्रकरण में लिखा जायगा (अं०―५२०)।]

( ३ ) भाववाच्य भावेप्रयोग में कर्ता की आवश्यकता हो तो उसे करण-कारक में रखते हैं; जैसे, यहाँ बैठा नहीं जाता, मुझसे चला नहीं जाता, इत्यादि। भाववाच्य भावेप्रयोग में सदा अकर्मक क्रिया आती है। (अं०-३५२)।

( ५ ) कृदंत।

३६९―क्रिया के जिन रूपों का उपयोग दूसरे शब्द-भेदों के समान होता है उन्हे कृदंत कहते हैं; जैसे, चलना (संज्ञा), चलता (विशेपण), चलकर (क्रिया-विशेषण), मारे, लिए (संबंध- सुचक), इत्यादि।

[सं०―काई कृदंतों का उपयोग काल-रचना तथा संयुक्त क्रियायों में होता है और ये सब धातुओं से बनते हैं।]

३७०―हिदी मे रूप के अनुसार कृदंत दो प्रकार के होते हैं—(१)विकारी (२) अविकारी वा अव्यय। विकारी कृदंतों का प्रयोग बहुधा संज्ञा वा विशेपण के समान होता है और कृदंत अव्यय बहुधा क्रिया-विशेषण वा कभी कभी संबंधसूचक के समान आते हैं। (अं०―६२०)। यहाँ केवल उन कृदंतों का विचार किया जाता है जो काल-रचना तथा संयुक्त क्रियाओं में उपयुक्त होते हैं। शेष कृदंत व्युत्पत्ति-प्रकरण में लिखे जायँगे।

१―विकारी कृदंत।

३७१-विकारी कृदंत चार प्रकार के हैं–(१) क्रियार्थक संज्ञा (२) कर्तृवाचक संज्ञा (३) वर्तमानकालिक कृदंत (४) भूतकालिक कृदंत।