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४१३—एक ही कृदंत के साथ भिन्न-भिन्न अर्थों में भिन्न-भिन्न सहकारी क्रियाओं के योग से भिन्न-भिन्न अवधारण-बोधक क्रियाएँ बनती हैं; जैसे, देख लेना, देख देना, देख डालना, देख जाना, देख पड़ना, देख रहना, इत्यादि।

४१४—शक्तिबोधक क्रिया "सकना" के योग से बनती है; जैसे, खा सकना, मार सकना, दैड़ सकना, हो सकना, इत्यादि।

"सकना" क्रिया स्वतंत्र होकर नहीं आती; परंतु रामचरितमानस मे इसका प्रयोग कई स्थानों में स्वतंत्र हुआ है; जैसे, "सकहु तो आयसु धरहु सिर"।

अँगरेज़ी के प्रभाव से कोई-कोई लोग प्रभुता प्रदर्शित करने के लिये शक्ति-बोधक क्रिया का प्रयोग सामान्य वर्त्तमानकाल में आज्ञा के अर्थ में करते हैं; जैसे, तुम जा सकते हो (तुम जाओ)। वह जा सकता है (वह जावे)।

४१५—पूर्णताबोधक क्रिया "चुकना" क्रिया के योग से बनती है, जैसे, खा चुकना, पढ़ चुकना, दौड़ चुकना, इत्यादि।

कोई-कोई लेखक पुर्णताबोधक क्रिया के सामान्य भविष्यत्-काल को अँगरेजी की चाल पर "पूर्ण भविष्यत्-काल" कहते हैं, जैसे, "वह जा चुकेगा"। इस प्रकार के नाम पूर्णताबोधक क्रियाओं के सब कालों के ठीक-ठीक नहीं दिये जा सकते; इसलिए इनके सामान्य भविष्यत् के रूपो के भी संयुक्त क्रिया ही मानना उचित है। (अं॰—३५८—टी॰)।

इस क्रिया के सामान्य भूतकाल से बहुधा किसी काम के विषय में कर्त्ता की अयोग्यता सूचित हेाती है; जैसे, तुम जा चुके! वह यह काम कर चुका!

"चुकना" क्रिया के कोई-कोई वैयाकरण "सकना" के समान परतंत्र क्रिया मानते हैं; पर इसका स्वतंत्र प्रयोग पाया जाता है;