तिज् (टेना)-तेजस, | पय् (जाना)—पयस् |
श्रृ (सताना)-शिरस् | व् (जाना)-वयस् |
ऋ (जाना)-उरस् | छद् (प्रसन्न करना)—छंदस |
[सू॰—इन शब्दों के अंत का स् अथवा इसीका विसर्ग हिंदी में आनेवाले संस्कृत सामासिक शब्दों में दिखाई देती है; जैसे, सरसिज, तेज पुंज, पमोद, छदःशास्त्र, इत्यादि। इस कारण से हिंदी व्याकरण में इन शब्दों का मूल रूप बताना आवश्यक है। जब पे शब्द स्वतंत्र रूप से हिंदी में आते हैं तब इनको अन्त्यस छोड़ दिया जाता है और ये सर, तम, तेज, पय, आदि अकारांत शब्दों का रूप ग्रहण करते हैं।]
आलु (गुणवाचक)—
दय्—दयालु, शी (सेना)-शयालु।
इ—(कर्तृवाचक)—
हृ—हरि, कु—कवि।
इन्—इस प्रत्यय के लगाने से जो (कर्तृवाचक) सज्ञाएँ बनती हैं उनकी प्रथमा का एकवचन ईकारात होती है। हिंदी मे यही ईकारांत रूप प्रचलित है, इसलिए यहाँ ईकारांत ही के उदाहरण दिये जाते हैं।
त्यज् (छोडना)—त्यागी। दुष् (भूलना)--दोषी। युज्— योगी। वद् (बोलना) =वादी। द्विष् (वैर करना)—द्वेषी। उप + कृ—उपकारी। सम् + यम्-संयमी। सह + चर=सहचारी।
इस—
द्युत (चमकना)—ज्योतिस , हु—हविस्।
[सू॰—अस् प्रत्यय के नीचेवाली सूचना देखो।]
इष्णु—(योग्यर्थिक फतृवाचक)—
सह-सहिष्णु। वृघ् (बढना)—वधिष्णु।
"स्थाणु" और "विष्णु" में केवल "नु" प्रत्यय हैं; और जिष्णु में "ष्णु" प्रत्यय है। नु और ष्णु प्रत्यय इष्णु के शेष भाग हैं।