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ऐसी अवस्था में समास का विग्रह केवल पूर्वापर संबध से हो सकता है।

(अ) कभी-कभी बिना अर्थ-भेद के एक ही समास के एक ही स्थान में दो विग्रह हो सकते हैं; जैसे, लक्ष्मीकांत शब्द तत्पुरुष भी हो सकता है और बहुब्रीहि भी। पहले में उसका विग्रह लक्ष्मी की कांत (पति) है; और दूसरे में यह विग्रह होता है कि लक्ष्मी है कान्ता (स्त्री) जिसकी। इन दोनों विग्रह का एक ही अर्थ है, इसलिए एक विग्रह स्वीकृत हो सकता है और उसीके अनुसार समास का नाम रक्खा जा सकता है।

४८४—कई-एक तद्भव हिंदी सामासिक शब्दों के रूप में इतना अंग-भंग हो गया है कि उनका मूल रूप पहचानना संस्कृतानभिज्ञ लोगों के लिए कठिन है। इसलिए इन शब्दों को समास न मानकर केवल यौगिक अथवा रूढ ही मानना ठीक है, जैसे, ससुराल शब्द यथार्थ में संस्कृत श्वशुरालय का अपभ्रंश है, परंतु आलय शब्द आल बन गया है जिसका प्रयोग केवल प्रत्यय के समान होता है। इसी प्रकार "पड़ोस" शब्द प्रतिवास का अपभ्रंश है, पर इसके एक भी मूल अवयव का पता नहीं चलता।

(अ) कई एक ठेठ हिंदी सामासिक शब्दों में भी उनके अवयव एक दूसरे से ऐसे मिल गये हैं कि उनका पता लगाना कठिन है। उदाहरण के लिए "दहेंडी" एक शब्द है जो यथार्थ में दही-हाँडी है, पर उसके "हाँडी" शब्द का रूप केवल एँडी रह गया है। इसी प्रकार अँगोछा शब्द है जो अँगपोंछा का अपभ्रंश है, पर पोंछा शब्द "ओछा" हो गया है। ऐसे शब्दों को सामासिक शब्द मानना ठीक नहीं जान पड़ता।

४८५—हिंदी में सामासिक शब्दों के लिखने की रीति में बड़ी गड़बड़ है। जिन शब्दों को सटाकर लिखना चाहिए वे योजक