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(३) विधिकाल की द्विरुक्ति से आदर, उतावली, आग्रह और अनादर सूचित होता है; जैसे, आइये आइये, आज किधर भूल पड़े! देखो, देखो, वह आदमी भाग रहा है। जाओ, जाओ।

४९६—सहायक क्रियाओं का काम करनेवाले कृदंतों की भी पुनरुक्ति होती है और उनसे नीचे लिखे अर्थ पाये जाते हैं—

(१) पैनःपुन्य—पत्ते बह-बहकर आते हैं, वह मेरे पास आ-आकर बैठता है, घर मे कौन लड़कियाँ छोटी न्योत-न्योत लावेगी, मैं तुम्हारा घर पूछता-पूछता यहाँ तक आया हूँ।

(२) अतिशयता—लडका चलते-चलते थक गया, इंद्र रो-रोकर कहने लगा, वह मारा-मारा फिरता है।

(३) निरंतरता—हम बैठे-बैठे क्या करे? श्रीकृष्ण को बँधे-बँधे पूर्व जन्म की सुधि आई। पुस्तकें पढ़ते-पढ़ते आयु बीत गई। लड़का सोते-सोते चौक पड़ा।

(४) अवधि—इस रीति से चले-चले राज-मंदिर में जा विराजे। आपके आते-आते सभा विसर्जन हो गई। वहाँ पहुँचते-पहुँचते रात हो जायगी।

(५) "होते-होते" का अर्थ "धीरे-धीरे" है।

(६) कभी-कभी अपूर्ण क्रिया-द्योतक कृदंतों के बीच मे 'न' का आगम होता है; जैसे, उसके आते न आते काम हो जायगा।

४९७—अवधारण के अर्थ में कभी-कभी निषेधवाचक क्रिया के साथ उसी क्रिया से बना हुआ भूतकालिक अथवा पूर्ण क्रियाद्योतक कृदंत आता है, जैसे, सो किसी भॉति मेटे न मिटेंगे, यह आदमी उठाये नहीं उठता, (धनुष) टरै न टारा, वह किसी का बचाया न बचेगा।

४९८—क्रियाविशेषणों की पुनरुक्ति पौनःपुन्य, अतिशयता, न्यूनता आदि अर्थो में होती है; जैसे, धीरे-धीरे, कभी-कभी, जब-जब, नीचे-