पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ३.pdf/३८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चपड़ी १४६७ चपरि : चपड़ी -संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटा] १. तखती। पटिया। २. दे० चपरना' -क्रि० स० [अनु० चपचप] १. किसी गीली या चिप- - 'चिपड़ी। चिपी वस्तु को दूसरी वस्तु पर फैलाकर लगाना। वि० दे० .. चपत-संक्षा पुं०, श्री० [सं० चपट] १. तमाचा या थप्पड़ जो सिर 'चुपड़ना' । उ०---ऊधो जाके माथे भागु । अवलन योग या गाल पर मारा जाय । सिखावन पाए चेरिहि चपरि सोहागु। सूर (शब्द०)। । विशेष-कुछ लोग चपत केवल उसी थप्पड़ को कहते हैं, जो २. परस्पर मिलाना। सानना । अोतप्रोत करना । उ०- सिर पर लगे। विपय चिंता दोउ है माया । दोउ चपरि ज्यौं तरुवर छाया । क्रि० प्र०-जमना।-जमाना।--बैठना ।--मारना । —लगाना। सूर (शब्द०)। ३. भाग जाना । खिसक जाना । उ०--बैठती पान वान से तो क्यों। बात बैठी अगर चपत चपरना' - कि० स० [सं० चपल] तेजी करना। जल्दी करना। बैठे।-चुभते०, पृ० ५२ । उ.-सरल वक्रगति पंचग्रह चपरि न चितवत काहु । तुलसी . सूधे सूर ससि समय बिडंवत राहु ।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०-चपत झाड़ना या धरना=चपत मारना। चपरनी--संग्रा श्री० [देश॰] मुजरा ।गाना। वेश्याओं की बोली) . या-चपतगाह खोपड़ा । गुद्दी। २. धक्का । हानि । नुकसान । जैसे, बैठे वैठाए चार रुपए का चपरा'---संथा पुं० [हिं० चपड़ा] दे० 'चपड़ा। चपरा--वि० कोई बात कहकर या कोई काम करके उससे इनकार चपत वैठ गया। करनेवाला । मुकर जानेवाला । शूठा । क्रि० प्र०--पड़ना ।-बैठना। चपरा--अव्य० [हिं० चपरना] हठात् । मान नमान। ख्वाहमख्वाहा चपतियाना-क्रि० स० [हिं० चपत] चपत लगाना। उ०-पांच जैसे हो तैसे । उ०-देखा भाला तोपची चपरा सैयद होय । हिंदुओं के सवारों ने मुझे पकड़ लिया और तुरक तुरक करके चपराना'-क्रि० स० [देश॰] झूठा बनाना । झुठलाना । लगे चपतियाने ।-भारतेंदु अं०. भा० १, पृ० ५२५ । चपराना :--क्रि० स० [हिं०] बहकाना। उ०-चोरी करि चपदस्त-संक्षा पुं० [फा०] वह घोड़ा जिसका अगला दाहिना पैर चपरावत सौहनि काहे को इतनो फाँफट फांकत ।-धनानंद, सफेद हो। पृ० ३३६। चपनक@t--संज्ञा स्त्री० [हिं० चपटी दे० 'चपटी1 उ०-कूले तले चपरास--संशा बी० [हिं० चपरासी] १. पीतल आदि घातुनों की स्थल है कोनी । गोड़े ऊपर चपनक दीनी ।-प्राण, पृ०२४ । एक छोटी पट्टी जिसे पेटी या परतले में लगाकर सिपाही, चपना--क्रि०अ० [सं० चपन (= कूट ना, कुवलना)] १. दबाना । दाब चौकीदार, अरदली आदि पहनते हैं और जिसपर उनके में पड़ना । कुचल जाना ।। उ०--वपति चंवला की चमक मालिक, कार्यालय आदि के नाम खुदे रहते हैं। विल्ला । हीरा दमक हिराय । हाँसो हिमकर जोति की होति हास तिय वैज । २. मुलम्मा करने की कलम । ३. मालखंभ की एक पाय |--गम धर्म०, पृ० २४२ । २. लज्जा से गड़ जाना। कसरत जो दुवगली के समान होती है । दुवंगली में पीठ पर लज्जित होना । सिर नीचा करना । शरमाना । अपना । झिप से बॅत पाता है और इसमें छाती परसे पाता है। ४. बढ़इयों जाना । चौपट होना । नष्ट होना। के मारे के दांतों का दाहिने और वाएं झुकाव। ... चपनी-संज्ञा स्त्री० [हिं० चपना] १. छिछला कटोरा । कटोरी।.. विशेष-बढ़ई पारे के कुछ दांतों को दाहिनी ओर और कुछ को बाई और थोड़ा मोड़ देते हैं, जिसमें प्रारे के पत्ते की मोटाई महा.---चपनी भर पानी में डूब मरनालज्जा के मारे किसी से चिराव के दरज की मोटाई कुछ अधिक हो और लकड़ी को मुह न दिखाना । पारे को पकड़ने न पावे । १. एक प्रकार का कमंडल जो दरियाई नारियल का होता है। ५. मरतों के मोठे पर की चौडी धज्जी। - ३. वह लकड़ा जिसम गड़ारए ताना बाधकर कवल का पाट्टया - चपरासी-संक्षा पुं० [फा० चप (बायाँ)+रास्त (= दाहिना) ] बुनते हैं। ४. हाँड़ी का ढक्कन । - वह नौकर जो चपरास पहने हो और मालिक के साथ रहे। मुहा०-चपनी चाटना=बहुत थोड़ा अंश पाकर रह जाना।' .सिपाही । प्यादा । मिरवहा । अरदली। . . . ५. घुटने की हड्डी । चक्की। ....... चपरि@--कि० वि० [सं० चपल] फुरती से । चपलता से । तेजी से। चपरउनी--(धा स्त्री० [हिं० चपटा] लोहारों का एक प्रौजार जिससे जोर से। सहसा । एकबारगी। उ०—(क) जीवन से बालटू पीटकर फैलाया जाता है। जागी आगि चपरि चौगुनी लागि तुलसी विलोकि मेघ चले चपरकनातिया-वि० हिं० चपरकनाती] ६० 'चपरकनाती' ।:: मुंह मोरि के।-तुलसी (शब्द०)। (ख) तहाँ दशरथ के चपरकनाती-वि० [हिं० चपर+तु कनात+हिं० ई (प्रत्य॰)] समर्थ नाथ तुलसी को चपरि चढ़ायो चाप चंद्रमा ललाम को ।--तुलसी (शब्द०)। (ग) राम चहत सिव चापहि खुशामद करनेवाला। .. चपरि चढ़ावन । —तुलसी (शब्द०)। (घ) चपरि चलेउ चपरगट्ट-वि० [हिं० चौपट + गटपट] १. सत्यानाशी । चौपटा । • हय सुटुकि नृप हांकि.न होइ निबाहु ।--तुलसी (शब्द०)। . . २. श्राफत का मारा। अभागा । ३. गुत्थमगुत्था । एक में . (च) फियो छुड़ावन विविध उपाई। च परि गह्यो तुलसी उलझा हुआ। . बरियाई।-रघुराज (शब्द०)।