पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३३८

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ढोवा' संगनजरी दोवा - पावा। पाक्रमण हमला । २०-पंच पंच ढसना-क्रि० स० [मनु०, हि० धाँस] मानवध्वनि फरना । उ०- मन की हापनि गुरज । ढोवा ढारि हहावै दुरज। चिताई, तियनि को तल्ला पिय तियन पियल्ला त्यागे ढौंसत प्रबल्ला पु. ३४(ख) निसि वासर ढोवा करे सोणित बहे प्रवाह।- मल्ला धाप राजद्वार को।-रघुराज (पन्द०)।- बिताई०, पृ. ४२ ढोकन-सना पुं० [सं०] धूस । रिशवत । ढोवा २-सहा पुं० [हिं. ढोना ढोए पाने की क्रिया । ढोवाई। ढोकना-क्रि० स० [देश॰] पीना ।--(अशिए)। २. लूट । उ.-सुनहि सून संपरि पर रोवा । कस होइहि पो ढौकित--वि० [सं०] समीप या निकट लाया हुआ [को०) । होइहि टोदा-जायसी (शब्द०)। ढोबाई-संज्ञा ली [हिं० ठुलाई ३० 'ठुलाई। दौरी@+२-सका सी० [हिं०] रठ। धुन । लो। लगन । उ०-(क) ढोहना-कि० . [हिं० टोह टोह लेना। शोजना। रसिक सिर मौर ढोरि लगावत गावत राधा राधा नाम :- सूर (शब्द॰) । (ख) रूखिए खात नही मनखात भर दिन ढौचा-सका पु० [सं० पर्द, मा०पद+हिचार] वह पहाड़ा जिसमें राति रही परि ढोरी।-देव (शब्द॰) । क्रम से एक पक पक का साढ़े चार गुना पफ बतलाया जाता है। साढ़े चार का पहाड़ा। ढौरी-सच्चा स्त्री० [हिं० ठुरना] दे० 'दुरीं'। रण-हिंदी या संस्कृत वर्णमाला का पद्रहवा ग्यजन । इसका उच्चारण- स्थान मुर्षा है। इसके उच्चारण मे पातर प्रयत्न स्पृष्ठ पर सानुनासिक है। बाह्य प्रयत्न सवार नाद घोष पौर पल्पप्राण है। इसका संमोग मधन्य वर्ण, मतस्प तपा मोर के साय होता है। ए-सबा पुं० [सं०] १ विदुदेव । एक युद्ध का नाम । २. पाभूषण। ३ निर्णय । ४. शान । ५. शिव का एक नाम। पानी का घर। ७ वान । - पिंगल में एक गण का नाम । वि० दे० । 'जगण'।. बुरा व्यक्ति । खराब ,मादमी (को०)। १०. स्वीकारसुचक पान्द । न । नहीं (को०)। . ए-वि० गुण रहित । गुणशून्य। एगण-संज्ञा पुं० [सं०] दो मात्रामो का एक मात्रिक गण । इसके - दो रूप हो सकते हैं ---जैसे, 'घी (s) पौर हरि' (0)। एय-सबा पुं० [सं०] ब्रह्मलोक का एक समुद्र को। -सस्कृष्ठ या हिंदी वर्णमाला का १६वा और तवर्ग का पहला ३ संकरा । संकुचित । सला। चुस्त । सकी। मोछा । छोटा। ., मक्षर बिसका उच्चारणस्थान दत है। इसके उम्पारण में सिकुडा हधा। सफेत । उ०—कहे पदमाकर त्यों उपत विवार, श्वास पौरोष प्रयल लगते हैं। इसके उच्चारण उरोजन तग मंगिया है तनी तनिन तनाइकै ।-पद्माकर मे पापी मात्रा का समय लगता है। प्र०, पृ० १२६ । त-समा श्री० [सं०] नाव । नौका । २ पुण्य ! पवित्रता! तंगदस्त--वि० [फा०] १. कृपण । कजूस ! २ दरिद्री । धनहीन ! तंक-साई [सं० तङ्क १ भय । डर । वहादुख जो किसी प्रिय गराव । के वियोग से हो । ३ पत्थर काटने की टॉकी। ४ पहनने का तंगदस्ती-सबा पी० [फा०] १. कृपणता। कजुसी । २. दरिद्रता । __ कपड़ा । ५. कष्टपूर्ण जीवन । विपत्तिमय जीवन (को०)। घवहीनता । गरीबी। तंकन- पु. [सं० तदन] कष्टमय जीवन । दु.स के साथ जीवन तंगदिल-वि० [फा] कन्जुस । उ०-हुमा मालुम यह गुचे से हमको । ज्यतीत करना (को॰] । - जो कोहपरवार है सो नगदित है।- कविता को०, माग.४, · पृ० ३०। का-वि० [ हिक मपकारी। प्रातक उत्पन्न करनेवाला। मामला दगमजर-वि० [फा०वग+प्र. नजर तुच्छ दृष्टि का। सीमित उ.-नरयल मो चित्तौड़ सूतका। ह. राधो, पृ० ५६ । दृष्टिवाला । बहुत कम देखनेवाला । १०-उसने उनकी तंग'-- पुं० [फा०] घोडों की जीम कसने का तस्मा। घोडों की -तुलना उन, सगनबर चीटियों से की, जो किसी प्रतिमा पेटी। कसन। - सौंदर्य को इसलिये नही देख पाती क्योंकि उसपर रेंगठे सबर तंग-- वि०१ कसा। रद । २ मानिन । दुखी विक। विकल । वे केवच उसके छोटे मोटे उतार चढ़ावो पर ही टिकरिव हैरान। .. रखती है। प्रेम और गोर्की, पृ. 'च'।२ अनुदार।

  • मुहा०-तग माना, जगहोना घबरा जाना । यक जाना । तंग दकियानुस ।

करता सताना दुसदेना। हाय दंग होतापल्ले पैसा व तंगनजरी-सबबी.हि. तंगवपर+६ (प्रत्य॰)] 1.ष्टि होना । धनहीन होना। धंकीर्णता । दृष्टि की मरूपता । २. अनुदारता । वकियाती।'