पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३५

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जठर३ उड़ता विशेष-कहते है कि रोपयुक्त मरकत के रखने से मनुष्य ठिठुरा हुमा । ५ शीतल। ठंढा। ६ गूगा। मूकः। ७. दरिद्र हो जाता है। जिसे सुनाई न दे। पहरा । ८. अनजान । अनमि । ६ जिसके मन मे मोह हो। जो वेद पढ़ने में असमर्थ हो जठर-वि० १.पर। बढ़ा । २. कठिन । ३. पंषा हमा (को०)। (दायभाग)। जठरगद पु. [सं०] मौत की पापि (को०] 1 जठरधारा-महा स्त्री० म०] क्षुधाग्नि। बुमुक्षा। मुख।२ जड़-सज्ञा पुं० [सं० जसम्] १ जल । पानी । २ परफ। ३ सीमा नाम की धातु । ४ कोई भी अचेतन पदार्थ (को०)। उदर को पीड़ा उदरशुप्त द्रिो०] । जर--सधा स्रो० [सं० जटा ( = पक्ष की जड)] वृक्षों और पौधों जन्नु त-सम [सं०] अमलतास । पादिका वह भाग जो जमीन फे प्रदर दबा रहता है और जठराई-वि० [हिं० जेठ या जठर] [वि०सी० जेठरी] जेठा। बा। जिसके द्वारा उनका पोषण होता है। मूल । मोर। जठरागिg-मशा स्रो० [सं० जठराग्नि ] दे॰ 'जठराग्नि' । विशेष-जर फे गुम्य दो भेद है। एफ मूसल या उहे के प्राकार जठराग्नि-सस श्री.सं०] पेट को वह गरमी या पग्नि जिसमें की होती है और जमीन के पदर सीधी नीचे की ओर जाती प्रश्न पता है। है। पौर दूसरी झकरा पिमफे रेपो जमीन प्रदर पहत नीचे मिशेष-पित की कमी देशी से पठराग्नि चार प्रकार की मानी नहीं जाते पर थोड़ी ही गहराई में चारो तरफ फैलते हैं। गई है, ज्याग्नि, विषसाग्मि, पीग्नि , मौर समाग्नि । सिंचाई या पानी पौर खार पारि अष्टक द्वारा ही वृक्षों और जठरानलम [सं०] रे० 'जठराग्मि'। पौषों सा पहुंचती है। जठरामय-सा पु.[सं०] पहिसार रोम । २. पलोदर रोम। यौ०-पड़मूल । जठल- पुं० [सं०] पैदिक फाल फा एफ प्रफार का जलपात्र पह जिसके ऊपर फोई चीज स्थित हो । नींव । बुनियाद। . मिसका माफार उदर का सा होता था। मुहा०-जह उखादना, डाटमा या खोदना किसी प्रकार की जमाती-धापी० [विलासी २० 'जेठानी' .--देखि छानि पहुंचाकर या बुराई फरक समूल नाण करना। ऐसा ठाणी, लागी छप पैठ।-पी रासो, पृ०१६। मष्ठ करना जिसमें यह फिर अपनी पूर्वस्पिति तक न पहुंच नठागनिस स्वी[सं० भठरावि] २० 'बठराग्नि' | 10-- सो मह चमनार या स्थायी होना। जा पकरना फा खाय सिराय पपाप पठापनि पाय सहाय सवाय परे ।----- जमना। दृढ़ होना । मजबूत होना। पा पहनानीव पहना राम० धर्म०, पृ० १०५॥ .. दुनियाव पाना। शुसोना । षड़ दुनियाद से, जामल से: ठोटो-वि० [हिं० खूठा भौडी (प्रत्य॰)] पूठा कर देनेवाला। पामुलत । समूल । गढ़ में पानी देना पा भरना-२० 'जड़ उखाहना। जद में महा सलना- सर्वनाश का प्रयोग करना । जूठा करनेवाले स्वभाव फा। (भ्रमर)। १०-पपरीक चेटवा को लागो है परन, सुमि पग्रमाग सप भूरु भजुल जठोसी पर भीषना-माधार को पुष्ट करना ।। को।-पजनेस०, पृ०२१ । ३ हेतु। फारण। सवय । जैसे,---यही तो सारे भगों की जह है । ४ वह जिमपर कोई घीज मवलषित हो । प्राधार । जठेरा--वि० [हिजेठ या गठर] [खी जठेरी जेठा। बहा। उ.-विप्रथपू कुनमास्य बठेरी मानस, २४६ । जडधामला-सका ५० [हिं० भर+मामला ] भुई प्रावला । जस---वि०, संथा पुं० [सं०] २० जहाँको०] । जक्रिया-वि० [स० जानिय ] जिसे कोई काम करने में बहुत देर 'लगे । सुस्त । रोपंहुची। जसक्रिय-वि० [सं०] सुस्त 1-बोर्षपूत्री। जड़काक्षा-सभा पुं० [हिं० जादा+सं० फास] सरी के दिव । पारेका जहुल-सए . [ से० दे० 'बाल' (को०] । समय । उ.-सागेस माप परे पर पाया । पिरष्ठा फाल भपउ अडला-सका पुं० [ देश ] मारवाड़ में बच्चे के मुडन सस्कार को " अकाला। जायसी ५०, पृ० १५४ । जहूला कहते हैं 1-10-दादी को सब शुभ और पशुप जद जमत-14. पुं० [सं० जा + जगत् ] कार्यों (विवाह बम्म जमा ) मानते है पोर स्मरण करते प्रचेतन पदार्य । बड़प्रकृति। है।-मुदरं ग्र० (जो०), मा० १.८॥ जदुता-सक्षा नी[सं०बर का भाव, बटता] १ मवेतनता । २ सबसपा-वि० [सं. ] दे० 'बई। उ०-वाहर घेहन की मूर्खता। येवकूफी । ३ साहित्यदर्पण के अनुसार एक रहन, भीतर उरई प्रचेत ।-दरिया० बानी, पृ० ३४। मचारी भाव।। जहा.--सहा की जटा ] दे'सटा'। उ०-नतिष्पा गिर विशेष—यह पचारी माय किसी घटना के होने पर चित्त के वन के पुधन तिष्पारे । कंघ सु जड़ा फेहरी नेना ज्यो तारे । विवेकशून्य होने की दशा में होता है। यह भाव प्राय --पृ० रा०, २४ । १४६ । . पाराहट, दुख, भय या मोह मादि में उत्पन्न होता। जड़-वि० [सं० जर] १ जिसमें चेतनता न हो। पचेतन । २. ४ स्तब्धता - चलता1 चेष्टा न करने का भाष जिसकी इद्रियों को शक्ति मारी गई हो। चेष्टाहीन । स्तब्ध , -निज जहता लोगन पर डारी । होह हरुमं रघुपतिहि निहारी।- ३. मंदबुद्धिा नासमझ । मुर्ख । ४. सरदी का मारा या तुलसी (शब्द०)