पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/३५५

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दतवर २००१ ततवर-वि० [सं० तत्त्ववर] तत्वज्ञानी । तस्व की बात जाननेवासा ताल-वि० [t० तप्त ] जसता या तपता हुमा । गरम । उष्ण । ३०-उतार मित्र कृप्न तेहि पागे। यो रोष पप तप को मुहा०-तत्ता तवा- जो बात बात पर सरे। लड़ाका । झगडालु। सागे ।-घद., पु० २१२ । तत्ताथई-सका सौ.मनु.] नाच का बोल। वतसार-संज्ञा स्त्री० [सं० तातवाला 1 तापने का स्थान | पांच तची-वि० बी० [हि तता] तीक्ष्ण । तप्त । 30-जगपत्ती वण - देने या तपाने की जगह। उ.-सतगुर तो ऐसा मिला ताते जोस मै, रत्ती पाप समोण । वनसपती स्खल पालवा, कर लोह लुहार। फसनी दे कंचन किया ताय लिया तसार :-- तत्ती केवाण-रा००, १० १२६ । वसोथंबो- पुं० [ हि तप्ता( = रम्)+ यामना] १ दम तवड़ा--सभा पुं० [सं० तप्त+हिं. हाडी] [ली. मल्पा० दिलासा। बहलावा २ दो साते उप मावमियों को समझा ततहरी] वह परतन विशेषत' मिट्टी का बरसन जिसमे बुझाकर शांत करना। बीच बचाव । देहातवासे नहाने का पानी गरम करते है। तत्व-सक० [सं० तत्त्व] १ वास्तविक स्पिति । यथार्थता। वदाई@-सबा ली. हि तत्ता ] तप्त होने की क्रिया या भाव वास्तविकता । असलियत ! २ जगत् का मूल कारण ! परमी। 30-बरनि बताई चिति व्योम की तताई, जेठ पायो पातताई पुटपाक सी करत है।--कविता, पु. ५९। विशेष-स्य मे २५ तस्व माने गए पुरुप, प्रकृति, महत्तत्त्व (बुद्धि), महकार, पक्ष, करणं, नासिका, बिह्वा, त्वक, वाक, ततामह-वा० [] पितामह । वादा। ततारना-कि. स. [वि. तुत्ता (=परम परम पख से पाणि, पाय, पाव, उपस्प, मर, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, पष, षोना । २सरेरा देकर सोना धार देकर धोवा 130-मनह पृथ्वी, जल, तेज, वायु मोर पाकाच । मूल प्रकृति से शेप तत्वों विरह के सद्य पाय हिये सखि तक कि धरि वीर ततारति। को उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है-प्रकृति से महत्तव (बुद्धि), --तुलसी (शब्द०)। महत्तत्व से महकार, पहंकार से ग्यारह इद्रियाँ (पाच ज्ञानेंद्रिया, दति- श्री [C] अणी । पक्तिवता २. समूह । सेना। पाच कर्मेद्रिया और मन) और पांच तन्मात्र, पौध तन्मात्रों भौल। ३. विस्तार ४ पा का समारोह । उत्सव (को०)। से पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, मादि)। प्रलय काल में ये सब तत्व फिर प्रकृति मे क्रमश विलीन हो जाते हैं। योग में तदि-वि० [सं०] संचा चौदा । विस्तृत । १०-यज्ञोपवीत पुनीत ईश्वर को और मिलाकर कुल २६ तत्व माने गए हैं। साक्ष्य विराषत गूह पत्रु पनि पीन पंस सति ।-तुलसी (शब्द०)। के पुरुष से पोप ईश्वर में विशेषता यह है कि योग का ततुबाउ -सच पं० [सं० तन्तुवाय ] दे॰ 'तंतुवाय । ईदवर क्लेश, मविपाक पादि से पुषक् मावा पया है। ततुरि'-वि० [सं०] १ हिंसा करनेवाला । २. तारनेवाला। ३ वेदांडिया के मठ से ब्रह्म ही एकमात्र परमायु तत्व है। शून्य- जीतनेवाला (को०)।४ रक्षण पा पालन करनेवाला (को०)। वामी बौद्धों के मत से शुन्य या प्रभाव ही परम तत्व है, क्यों- ततुरि-सश्च ०१ अग्नि । २ (को०)। कि जो वस्तु है, यह पहले नही थी पौर मागे भी न रहेगी। ततैया - सहा बौ० [सं० तिक्त या सप्त (तत)+हि. ऐया कुछ न तो बीव और मजीव ये ही दो तत्व मानते हैं और (प्रत्य॰)]२पएँ। भि। हड़ा। २ जवा मिर्च को बहुत कुछ पाँव तख मानते है-जीव, पाकाण, धर्म, अधर्म, पुदगल काई होती है। मोर पस्तिकाय । चार्वाक के मन में पृथ्वी, जल, पग्नि और ततया -वि० [हिं०ीता अमवा वता] तेज। फुरतीला । २ वायु ये ही तत्व माने गए है पौर नहीं से अगत् की उत्पत्ति पाषाका बुद्धिमान । कही गई है। न्याय में १६, वैशेषिक में ६, शैवदर्शन मे ३६ ततोधिक-वि० [सं० ततोऽधिक ] उससे अधिक (को०] । इसी प्रकार अनेक दर्शनों को मिन्न भिन्न मान्यताएँ तत्व के ततौ-मव्य.हि तो। उ०-~ो हम सो हित हानि फियो । सबध में है। तती भूलिदो वा हरि कौन सौ साह यो।-नट०, पृ० ३४॥ यूरोप में १६वीं शती मे रसायन के क्षेत्र का विस्तार हमा। तत्काल-कि० वि० [सं०] (रत । फोरन । उसी समय। उसी वक्त । पैरासेल्सस ने तीन या चार तस्व माने, जिनके मुनापार खवर तत्कालीन-वि० [सं०] उसी समय का। गंधक पोर पारद माने गए। १७वी पाती में फास पर सत्क्षण-कि० वि० [सं०] उसी समय । तत्कास । फौरन । सी धम। इग्लैर में भी इसी प्रकार के विचारो को प्रश्रय मिलता रहा। तत्त -सज्ञा पुं० [सं० सत्व, हिं०] दे० 'तत्त्व'। तत्व के संबंध में सबसे अधिक स्पष्ट विचार राबर्ट वायव सत्त@ -वि० [सं० तप्त, हिं.] दे० 'त'। उ०-दुरंगी सुवतं, (१६२७-११६ ई.) ने १६६१० में रखा । उसने परिभाषा वर सिंघ च । मिल्यो वथ्य मान, दुप मल्ल जान |--पू० को कि तत्व उन्हें कहेंगे जो किसी यांत्रिक या रासायनिक रा, ६४५। क्रिया से अपने से मिन दो पदार्थों में विभाषित न किप पा तत्तद्-वि० [सं०] भिन्न भिन्न [को०] । सके। १७७४१० प्रीस्टली ने पाक्सिजन गैस तैयार की। तत्तद्-सर्व. वह वह। उन उन [को० । पारिश ने १५५१ ई. में पाक्सिजन पौर हादोजन योग तत्तमच -सहा पु.[वि.] दे० 'तत्रमत्र'। उ०-दथ्य जोर से पानी तैयार करके दिखा दिया और तब पानी सत्व व पहन सो बुल्लिक । तत्तमत भतर कर पुल्विा -पू० रहकर योपिकों की श्रेणी में भा गया। साध्वाज्ये ने १७पर रासो, पृ० १७२। ई० में पौगिक और वास्त प्रमुख पदको बताया। उसके।