पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४३५

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विणा २०७४ विते विणा-सस० [हिं० दे० 'तिनका'। उ०-दंत तिणालीमे २ एक घास जो गेहूँ मादि के बेतो में उगती है। कह रे पिय पाप विस्वाद।-सुपर ग्रंक, भा॰ २, पृ०६०२ विशेष-इसका पौधा हाप सवा हाथ तक का होता है। पत्तियां वितg'-क्रि.वि० [सं० त] १ वहाँ। वहा। उ.- श्रीनिवास पतली पतली होती हैं। इसकी पत्तियाँ और बीज दवा के को निज निवास छषि का कहिय तित ।-नद० ग्र०, पृ० काम में पाते हैं। २०२।२ उपर। उस पोर। उ०—जित देसौ तित तितलीधा-सहा पुं० [हि. तीत + लोपा] कडवा पह। पयाममपी है।-पूर (शब्द०)। तितलौकी -सुश [हितीता+नीमा ] क्ट तुवी। कढ़वा तिवा-वि० [वि. तीत का घमासगत रूप ] तिक्त । तीता। वैसे, तितखोकी। तितारा-समापुं० [सं० नि+हिं० ठार ] वह सिधार की तरह का विवर-सका पं० [सं०] १. वषनी । २ छन । छाता [को०] । एक बाजा जिसमें तीन तार लगे रहते हैं। 10--बाजेफ, तिवना-क्रि. वि० [सं० तति, ततीनि] उतना । उसके बराबर । नगारा, बीन, बाँसुरी सितारा चारितारा त्यों ततारा मुख २०-तम वाको सास एक हो और वाकी पातरि में परोसे। लावता निसक हैं।---रघुराज (शब्द०)। २. फसल की वितनो ही वह परिजिनी परनामृत मिलाय के पाहि।- तीसरी वार की सिंचाई। दो सौ बावन०, पा०२,१०५८। तितारा--वि. तीन तारवाला । जिसमें तीन तारहो। विशेष-जितना के साथ पाए हुए वाक्य का संबंध पूरा करने तितिबा-सबा पुं० [५० ततिम्भह ] 1. ढकोसला। २ थेप । ३. लिये इस चन्द का प्रयोप होता है। पर प्रब गद्य में इसका लेख का वह भाग जो प्रत मे उसी पुस्तक के सबंध में लगा प्रचार नहीं है। देते हैं। परिशिष्ट । उपसहार। तितर--सका पु० [हिं०] दे० 'तीवर'। 30-तुकुम स्वामिछुट्टत तितिक्ष-वि० [सं०] सहनशील । क्षमाशील । सम, मनों तितर पर वाव |--पु. रा., १४॥ तितक्ष-सहा पुं० एक ऋषि का नाम । निता बितर-वि० [हितिघर+ अनु• मितर] जो इधर उधर तितिक्षा-मश स्री० [मे०] १. सरदी गरमी मादि सहने की हो गया हो । छितराया हुया। विसरा हमा। जो एकत्र न हो। सामध्य। सहिष्णुता । २ क्षमा शाति। 10-पावें तुमसे वैसे, तोप की पावाज सुनते ही सब सिपाही तितर बितर हो पाज शत्रु भी ऐसी शिक्षा, जिसका प्रय हो दह और इति गए। २.पो क्रम से भगा न हो। मव्यवस्पिा मस्त व्यस्त । दया तितिक्षा | साकेत, पृ० ४२२ । जैसे,--तुमने सब पुस्तके विवर वितर कर दी। तिविन-वि० [सं०] क्षमापील । शोट । सहिष्पा । २. स्वागने की विवरात-सका पु. [देश॰] एक प्रकार का पौधा जिसकी पर भौषध इच्छावाला (को०)। काम में पाती है। तिति -सहा पु० पुरवधीय एक राजा जो महामना का पुत्र था। तितरोखी-सी० [हिं० तीतर] एक प्रकार की छोटी चिड़िया। वितिभ-सश ० [सं०] १ जुगनू । २ वीरवहूटो (फो०] । तिवली--संवा खो• [हिं० तीतर, पूह तितिल ( चित्रित डेनी के वितिम्मा-सहा पुं० [म. ततिम्मह] १. बचा हुमा भाग। र कारण)] 1. एक उड़नेवाला सुदर कीड़ा या फतिंगा जो प्रवशिष्ट प्रश। २ किसी प्रष के अंत में लगाया हमा प्राय बगीचों में फूलों से पराग भोर रस मादि पर निर्वाह प्रकरण । परिनिया करता है। विसिर, तितिरि--सज्ञा पुं० [सं०] तीवर पक्षी [को०)। विशेष-तितली के छह पैर होते हैं और मुह से वाल के ऐसी वितिल-सबा पुं० [सं०] १ ज्योतिष में साव करणों में के एक। दो संपियां निकली होती है जिनसे यह फलों का रस चूसती दे० 'तेतिव'। २ नाद नाम का मिट्टी का बरतन । ३ तिल है। दोनों पोरदो दो हिसाव से पार बढे पख होते है। की खली (को०)। भिन्न भिन्न तितलियों पर मिन मिन्न रग के होते है और तितो-क्रि० वि० [सं० तति, पत्तीनि ] उतनी। उ.---तब यी किसी किसी में बहुत दर बुटिया रहतीपख के पतिरिक्त हरि वह माया जिती। अतरध्यान करी हे विठी।-नव० इसका पोर बरोर इतना सूक्ष्म या पतला होता है कि दूर से दिखाई नहीं देता। गुवरे, रेशम के को मावि फतिंगों प्र०, ५.२६७। होता। तितीर्षा-सपा खी० [सं०] १ तैरने या पार करने की इच्छा। २. से निकलने , कपरांत यह कुछ दिनों तक गांठदार ढोले या सू रूप में रहती है। ऐसे ढोले प्राप पौर्षो की पत्तियों विवीयु-वि० [सं०] १ तैरने की इच्छा करनेवाला । 70-कवि पर चिपके प मिपते है। इन दोनों का मुख कुतरने योग्य मल्प, उप मति, भव तिती दुस्तर अपार । कल्पनापुर में होता है और ये पौधों को कभी क्वी बड़ी हानि पहुंचाते है। मावी द्रष्टा, निराधार । -ग्राम्या, पृ० ५८। २ तरने छह पसखी परों के अतिरिक्त इन्हे कई और पैर होते हैं। ये का प्रभिलाषी। तो दोले रूपांतरित होते होते तितली के रूप में हो जाते हैं तितुला-पा पुं० [ देश ] गाड़ी के पहिए का मारा। पौरगने लगते है। तिते -वि० [सं० वति ] पतचे ( संख्यावाचक )। उ.-प्रबर