पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४४४

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सिरि २००८ विर्यकप्रेत तिरि-वि० [सं० त्रि] तीन । उ०---पुनि तिहि ठाउ परी तिरोजनपद-सगा पुं० [सं०] कौटिल्य पर्थशास्त्र के अनुसार। तिरि रेखा-जायसी प्र. (गुप्त), पु. १६४ । राष्ट्र का मनुष्य । विदेशी।। तिरिया@-समा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'तिरिमा'। तिरोधान-सका पुं० [सं०] १. प्रतर्धान । प्रदर्शन । गोपन। तिरिगत्त-सका पुनहि.] दे०मिगत'। उ०—तिरिगत राज तामस पाच्छादन । पर्दा । पावरण । परिधान (को०)। बुझ्यो दिषिय पंग सजोगि मुष ।-पु० रा०, १२४५८ । तिरोधायक-मधा पु० [सं०] मार करनेवाला। छिपानेवास गुप्त करनेवाला। तिरिजिसक-सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पेट । तिरोभाव-वधा पुं० [सं०] १. भतर्धान । प्रदर्शन । तिरिनई-सक्षा पुं० [हिं०] दे० 'तृण'। गोपन । छिपाव। तिरिम-सहा पु० [सं०] शालिभेद । एक प्रकार का पान । तिरोभूत-वि० [म०] गुप्त । छिपा हुमा । पटा प्रहित । गायत्र तिरिय -वि० [सं० तिर्यक् ] वक्र । कुटिल । उ०-तिरिय 'तिरोहित-वि० [सं०] १. छिपा हुा । तहित । प्रदृष्ट । २० वक्र अधधक न ऊरष व प्रमान-पु. रा०,०। १७०। पाज तिरोहित हुमा कही यह मधु से पूर्ण मनंत वसत. तिरिया-सहा पुं० [ से० ] शालिभेद । एक प्रकार फा धान । कामायनी, पृ० १० । २. पाच्छादित । ढका हुमा। । तिरिया-सहा स्त्री० [सं० स्त्री] स्त्री। मौरत! उ०-तुम तिरिया ' तिरौछार-वि० [हिं०] ३० तिरछा'। उ.-कठिन वचन सु ____ मति हीन तुम्हारी।-जायमी (पाब्द०)। श्रवन जानकी सकी न वचन सहार। तृण अतर दैव यौन-तिरिया चरित्तर-स्लियो का रहस्य या कौशल । तिरौंछी दई नैन जलधार-सूर (शब्द०)। तिरिया–समा पुं० [ देश-] एक प्रकार का वास जो नेपाल में होता तिरौंवा-सा ० [हिं०] दे० 'तिरेंदा'। है। इसे प्रौला भी कहते हैं । तिर्य च-वि० [सं० तिबन्ध ] १ तिरछा । टेढा । वक्र । माढा [को तिरिविष्टप-सश'. [सं. निविष्टप ] दे० 'त्रिविष्टप' । उ०- तिर्यच-सश पुं० [ी वियं ची] १ पक्षी । २ पशु । ३. जो स्वर्ग, नाक, स्वर, घी, त्रिदिवि, दिव, तिरिवष्टप होर।-नद० जगत् या वनस्पति (जैव) । प्र०, पृ० १०८। तिर्य चानुपूर्वी-मुधा ली[सं० तियंञ्चानुपूर्वी] जैन शास्त्रानुसार जं. तिरिसना-सधा बो-[हिं०1 दे० 'तृष्णा'। उ०-लोम मोह को वह गति जिसमें उसे नियंग्योनि में जाते हुए कुछ काल त हकार तिरिसना, सग लीन्हे कोर। वीर श०, भा. ३, रहना पड़ता है। तिर्य'ची-सका स्त्री० [सं० तिर्यची] पशु पक्षियो की मादा। । तिरीछन -वि० [सं० तीक्ष्ण ] ३० तीक्ष्णा। उ०—रीषी ध्यान तिगुन-सया पुं० [हिं० २० विगुण' 13०-कहै ठगानको छोरि के ताका। नैन तिरीछन भहूँ प्रति बाँका ।-स० । लिए है तिगुन गाँसी ।-पल०, भा० १, पृ० ८३ । परिया, पृ.३। । तिदेव --ससा पुं० [हिं०-10 त्रिदेव'। उ०-कहें कबीर यह शार तिरीका -वि० [हिं० ] 'तिरछा। तिर्देष का ।-कमीर रे० पू० ३४ तिरीछोल-वि० [हि.] दे० 'तिरछा' । उ०-पापुन इनके प्रतर बरयो । खल तनक तिरीछो करपौ।-नद० म०, पु. २५४ । तिर्पित -वि० [हिं०] दे० 'तृप्त' । उ०—बिन मु के बहु करे मा तिरीद-सन्दा पुं० [सं०] १ लोन । लोध । २ किरीट । तिपित कियौ त्रिपुरारि है।-पद्माकर प्र०, पु० २१। तिरीफल-सज्ञा पुं० [सं० स्त्रीफल ] ती घुक्ष । तियक'-वि० [सं०] तिरछा । प्राडा । टेढा । तिरीविरी-वि० [हिं०] दे० 'तिडीबिड़ी'। विशेप-मनुष्य को छोड़ पशु पक्षी मादि जीव तिर्यक् कहलाते है क्योकि खड़े होने में उनके शरीर का विस्तार ऊपर की भोर तिदासका ० [सं० तररड ] १ समुद्र में तैरता कृपा पीपा जो नहीं रहता, प्राडा होता है। इनका खाया हुमा मन्न सीधे सकेत के लिये किसी ऐसे स्थान पर रखा जाता है जहाँ पानी ऊपर से नीचे की मोर नहीं जाता, बल्कि प्राडा होकर पेट में छिछला होता है, पट्टानें होती है, या इसी प्रकार की पौर जाता है। कोई वाधा होती है। सियकर-कि० वि०वक्रतापूर्वक । टेलेपन के साथ [को०)। विशेष---ये पीपे कई प्रकार प्रकार के होते हैं। किसी किसी के ऊपर घटा या सीटी लगी रहती है। तिर्यक् -संज्ञा पुं० १ पशु । २ पक्षी [को०] । २ मछली मारने की वसी मे कटिया से हाथ डेक हाथ ऊपर भी र तिर्यता-सक्ष स्रो• [म.] तिरछापन । मादापन । इई पाप छह अगुल की लकड़ी जो पानी पर तैरती रहती है तिर्थक्त्व-सा पु० [सं०] तिरछापन । प्राडापन । पौर जिसके डूबने से मछली के फंसने का पता लगता तिर्यक्पाती-वि० सं० तिर्यपाति] [वि०की तिर्यपातिनी] माढा, है। तरेंदा। __ फैलाया या रखा हुमा । वेडा रखा हुमा । तिरै-सचा पुं० [अनु.] फीलवानो का एक शब्द जिसे वे नहाते हए तियेप्रमाण-सका पुं० [सं०] पोदाई [को॰] । हुए हाथियों को लेटाने के लिये बोलते हैं। तिर्यक्प्रेक्षण-सका पु० [सं०] तिरछी चितवन [को०] ।