पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४४३

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विरसक विराहो सिरसक-सबा पुं० [सं० त्रिशक.] दे॰ 'त्रिशकु'। उ०—तिरसंकू जिसके प्रतर्गत माजकल विहार के दो जिले है-मुग गेहूँ सहू, दाऊ सम ए जान ।-पोद्दार पभिप्र०, पृ. ५३४ । फ्फरपुर और दरभगा। उ०---तिरहुत देस धनौती गई।- तिरस-म० [सं०] प्रत(न, तिरस्कार, माच्छादन, तिरछापन घट पु० ३५१ । माविमों का बोधक शब्द [को॰] । तिरहुति-सज्ञा स्त्री० [सं० तीरभुक्ति] १ एक प्रकार का गीत जो तिरसठ-वि० [सं० त्रिषष्ठि, प्रा. तिसष्ठि ] जो गिनती में साठ __ तिरहुत में गाया जाता है । २ दे० 'तिरहुत' । से तीन पधिक हो। साठ से तीन ऊपर। उ.-तिरसठ यौ०-तिरहुतिनाथ - राजा जनक । उ० देखे सुने भूपति भनेक प्रकार की राग रागिनी छड़ी।-कवीर पं०, पृ. ४३ । झूठे म नाम, साँचे तिरहुतिनाय साक्षि देति मही है।- तिरसठ-सा पु०१. वह सख्या जो साठ से तीन मधिक हो। तुलसी प्र., पृ० ३१४ ।। उक्त सरूपा को सूचित करनेवाला पक जो इस प्रकार शिक्षा तिरहुतिया'--वि० [हिं० तिरहुत तिरहुत का। तिरहुत सवधी। पाता है-६३। विरहुतिया-सधा पु० तिरहुत का रहनेवाला । तिरसना-मक्ष बी० [हिं०] दे॰ 'तृष्णा'। उ०-विरसना के तिरहुतिया:- बी तिरहुत को बोली। पस में पड़कर पादमी इसी तरह अपनी जिंदगी चौपट करता तिरहती-वि०, सञ्चा पुं०, स्त्री० [हिं०] दे० 'तिरहतिया। है।-गोदान, पृ० २८५ । तिरहेल-वि० [सं० नि] क्रम में तीसरा । जो तीसरे स्थान पर हो। विरसा-क पुं० [सं. त्रि+हि रस ? ] वह पाल जिसका एक विरा-सया पुं० [देश॰] एक पौधा जिसके बीजो से तेल निकषता सिरा घोडा मोर एक संकरा होता है (लश०)। है। एक तेलहन । तिउरा। विरस्त -सबा पुं० [सं० त्रिसूत्र 1 ठीन तागो का यज्ञोपवीत । यज्ञोपवीत । उ०-ताके परछों पाय ब्रह्म अपने को पावै। विराटी-सचा स्त्री॰ [सं०] निसोत । विरानवे-वि०म०विनवति, प्रा. तिन्नवा] जो गिनती में नम्बे पृ० ११३। से तीन प्रधिक हो। तीन कपर नब्बे । तिरसला-संबा पुनहि1दे० 'त्रिशल'। उ०--जो तोको काँटा तिरानवे-सक्षा पुं०१ नम्वे से तीन अधिक की सस्था। २ उक्त दुबै, ताहि नोव तू फूल । तोहि फूख को फूल है, वाको है सख्यासूचक अक जो इस प्रकार लिखा जाता है-६३। तिरसुल |--संतवाणी०, पू० ४४।। तिराना-क्रि० स० [हिं० तिरना] १ पानी के ऊपर ठहराना। विरसूली-सका [हिं० तिरसल ] दे॰ 'त्रिशूली'। 30-महा २. पानी के ऊपर चलाना । राना। ३.पार करना। ४. मोहनी मय माया मोहे तिरसूली।-नद०, ग्र०, पृ० ३८ । उबारना । वरना । निस्तार करना। तिरस्कर-सचा पुं० [सं०] प्राच्छादक । परदा करनेवाला । ढोकने- तिराना -क्रि० स० [हिं० तिरना] पानी के ऊपर रहना। वाला। उतराना ।-उ०पानी पत्थर प्राज तिराना ।-घट०, तिरस्करिणी-सी० [सं०] १ पोट । माड़ । परदा । कनात । पृ. २३३। . चिक । ३ वह विद्या जिसके द्वारा मनुष्य मदृश्य हो सकता है। तिराना-क्रि० प्र० [सं० तीर से नामिक धातु] तौर पर या तिरस्करी-सहा पुं० [सं० तिरस्करिन्] [स्त्री० तिरस्करिणी] माच्छा- फिनारे पा जाना । कनार पा दन । परदा तिरावण-सञ्चा पुं० [हिं० तिरना] तिरने की क्रिया या भाव । तिरस्कार-सक पुं० [सं०1 [वि. तिरस्कृत] १. अनादर ! अपमान । उ.-सौ धीदाता पलक मैं तिरे, तिरावण जोग।-दाद, २ भत्र्सना । फटकार । ३ मनादरपूर्वक त्याग। ४ साहित्य के अंतर्गत एक मर्यालंकार जिसमें गुणान्वित वस्तु में दुर्गुण तिरास-पक्षा पु० [सं० त्रास तिरास-पहा . [से० त्रास] दे० 'पास' । उ०-फई घर मागे गए दिखाकर उसका तिरस्कार किया जाता है। छप्पन जहां तिरास। -सहबो बानी ०,१० ३३ । क्रि० प्र०करना।-होना। विरासनाई'-क्रि० स० [H० त्रासन ] पास दिखाना। राना। भयभीत करना। वि० [सं०] तिरस्कार योग्य। तिरस्कृत होने लायक विरस्कृत-वि० सं०] १. जिसका तिरस्कार किया गया हो। प्रनारत। तिरासना-क्रि० स० [सं० तृषित ] प्यासा होना । प्यास लगना। २ अनादरपुर्वक त्याग किया हमा। ३ माच्छादित । परदे । तिरासी-वि० [सं० च्यपीति, प्रा. तियासोति ] जो गिनती में में छिपा हुमा । ४ तत्र के अनुसार (वह मंत्र) जिसके मध्य मस्सो से तीन अधिक हो । तीन ऊपर मस्सी। मकार हो और मस्तक पर छोकवच और प्रस्त्र हों। तिरासी'-सहा पु०१ मस्सी से तीन मषिक की संख्या। २. उक्त विकिया--सबा ली. [सं०] १ तिरस्कार । मनावर ।२ पाच्छा. सख्यासूचक पक जो इस प्रकार लिखा जाता है-८३। न। ३. पस्त्र । पहरावा । तिगहा-साधा पुं० [हिती<से नि+फा० राह ] वह स्थान जहाँ तिरह-सक पु. [देश०] एक फतिंगा पो धान के फूल को नष्ट से धीन रास्ते तीन ओर को गए हों। तिरमुहानी। तिराही-सका स्त्री० [हिं. तिसह ] तिराह नामक स्थान की बनी परत-बापुं० [सं०वीरभुक्ति वि० तिरहतिया] मिथिला प्रदेश कटारी या तलवार। तिरस्कार्य-वि. [सं०] तिरस्कार योग्य । ' कर देता है।