पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ४.pdf/४६७

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तुर नज-सह पुं० [फा०1० तुजं] १ चकोतरा नींबू । २ विजौरा तरह जल्दी खतम या खर्च हो जानेवाला । इस प्रकार चटपट नीतू । खट्टी। ३. सूई से काढ़कर बनाया हमा पान या चुक जाने या वर्ष हो जानेवाला कि मालूम न हो। वैसे, तुरई उलगी के प्राकार का वह बूटा जो अंगरखों में मोढ़ो पौर के फूल से ये सौ रुपए देखते देखते उठ गए। पोठ पर तथा दशाले कानों पर बनाया जाता है। कुज २ . वेल का फल । जाजबीन-संकी . [फा०] १ एक प्रकार की चीनी को प्राय तरई-सश सी.हि.1 दे० 'तुरही। ऊंटकटारे के पौधों पर प्रोस के साथ खुरासान देश में बमठी तुरक-सा० [हिं०] दे० 'तुकं'। है। नींबू के रस का पाबंत।। तुरकटा--सका पु० [ तु. तुकं +हिं• टा (प्रत्य॰)] मुसलमान । तुरत-कि० वि० [सं० तुर(-वैग, जल्दी)]जल्दी से । प्रत्यंत शीघ्र। (घृणासूचक शन्द)। तरक्षण झटपट । फौरन । बिना विलय । ०--रघुपति परन नाइ सिह चलेउ तरंत अनंत । अंगद बोल मयंद नस तुरकाना-सबा पुं० [९० तुकं] १. तुकों या मुसलमानों की बस्ती। एप सुभट हनुमत ।-मानस, ६७४। २ दे० 'तुकं'। उ०-पाथर पूजत हिंदु मुलाना। मुरदा पूर मूले तुरकाना ।-कवीर सा०,५.२०॥ तुरता-सबा पुं० [हि. तुरत ] गांजा (जिसका नशा तुरत पीते हो बढ़ता है)।२ सत्त । ( जिसे तत्काल खाया जा तुरकाना-सा . [तु० तु] [ो तुरकानी] १ तुकाका सा। सकता है) तुओं के पेसा । २ तुकों का देश या बस्ती। तरंगा- [हिं०] दे० 'तुरग'। उ०-तुरंग चपल चंद्रमडल तुरकानी'-वि० सी० [तु. तुर्क+हिं० पानी (प्रत्य॰)]ों की सी। विकल वेला, कुद है विफल बहां नीच गति बारिए।-मति० तुरकानी-सक्षा औ० वर्क की स्त्री। प्र., पृ०४१७ । तुरकिन-संबा खौ०. तुर्कहि० इन (प्रत्य॰)] १. तुर्क की स्त्री। तुरंज-सक्षा पु० [हिं०] दे० 'तुरज-२ । उ०-गलगल तुरंज सदा- २ तुकं जाति की श्री ३. मुसलमानिन । मुसलमान ली । फर फरे। नारंग मति राते रस भरे।-जायसी पं० पु. १३१ तुरकिस्तान-सहा पुं० [हिं॰] दे॰ 'तुर्किस्तान । तुर-कि. वि० [सं०] शीघ्र। जल्द । स.बह दादि डारे समर में तरकी-वि० तु.तुकी] १. तुळं देश का से, तुरकी घोड़ा, तरका तुर में तुरगाह दपटि के।-पधाकर पं०, पृ० २.। सिपाही । २. तुर्क देश 'बषी।। तुर-वि० १. वेमवान् । पीघ्रगामी। २.छ। सबब (को०)। ३. तरकी-सश श्री. तुकों को भापा । किस्तान की भाषा । घायज । पाहत (को०)। ४. धनी (को०)। ५. अधिक। तरका -सया पुं॰ [ft] दे० 'तु। उ.---राए कृषिमा सतहम प्रहर [को० ॥ रोस, लज्जाहम निव मनाहि मन, प्रस तसेक प्रससान. तुर- पु. वेग । क्षिप्रठा [को०)। गुएण्इ। कीर्ति०, पृ.१०। तुर-सत्र पुं० [सं० तकुं] १ वह लकड़ी जिसपर जुचाहे कपड़ा बुन- कर लपेटवे जाते हैं। २ वह वेचन विसपर गोटा दुनकर तुरग-वि० [सं०] तेज चलनेवाला। सपेटते जाते हैं। तुरग-शा पुं० [स्त्री. तुरगी] १ घोड़ा । २. पिरा । तुर -सका पुं० [ सं० तुरग>तुरम, तुर | घोड़ा। अश्वा तुरगगंधा-सवा बी• [सं० तरगगन्धा] प्रश्वगधा । प्रसग । तुरग। उ0-माघ पद्दि पंचम दिवस चढ़ि चलिए तुर वार। तुरगदानव-सज्ञा पुं॰ [सं०] केशी नामक दैत्य जो कर की -पृ. रा०, २५॥ २२५ । माज्ञा से कूवल को मारने के लिये घोरे का रूप धारकरके तुई-सहा मी [सं० तर = तुरही बाजा)] एक वेल मिसके लवे गया था। फों की तरकारी बनाई जाती है। तुरगब्रह्मचर्य-सा पं० [सं०] यह ब्रह्मचर्य जो केवल ली है। विशेष—इसकी पत्तियों गोल कटावदार कद की पत्तियों से मिलने के कारण ही हो। मिलती जुलती होती है। यह पौषा परत दिनों तक नहीं तरगलीलक---सबा पुं० [सं०] संगीत दामोदर के . रहता । इसे पानी की विशेष आवश्यकता होती है, इससे यह का नाम। बरसात ही में विशेषकर बोया जाता है और बरसात ही तक तरगारोहा-साझ पुं० [सं०] युत्सवार (को। रहता है। ररसाती तुरई छप्परों या टट्टियों पर फैलाई जाती तुरगारोही-सभा पुं० [सं० तुरगारोहिन] घुड़सवार [फो। .... है, क्योंकि भूमि में फैलाने से पत्तियों मोर फली के सड़ जाने तरगी'-- सी० [सं०] १ घोड़ी। २ अश्वगधा। का हर रहता है। गरमी में भी लोग क्यारियों में इसे पोते हैं तुरगी-सा पुं० [सं० तुगिन् ] अश्वारोही। इसबार।.. और पानी से तर रखते हैं। गरमी से बचाने पर यह वैन । माहा म फलठी और फलती है। त फल पीले रंग तुरगुला-सदा पुं० [देश० लटकन जो कानकर होते हैं मोर सम्मा के समय मिलते हैं। फल लबे लबे होते हैं । में लटकाया जाना है। सुमका । लोलक। जिनपर मंबाई के बल उमरी हई नसों की सीधी लकीर तुरगोपचारफ-संधा पुं० [सं०] साईस को०] । समान प्रतर पर होती है। तुरण'--वि० [सं०] वेगवान । शीघ्रगामी [0] । महा०-तुरईका फल सासकीया छोटी मोटी बीष की तुरण-सा (बीघा वेग [को०] । .. ."Erm