पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१२९

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बाधी २४२२ बाजरा बाधी-संज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक प्रकार की गिलटी जो अधिकतर जाना । जैसे,---तुमको कई बार मना किया, पर तुम शरा- गरमी के रोगियों के पैर और जाँध की संधि में होती है। रत से बाज नहीं आते हो। बाज करना रोकना। मना यह बहुत कष्टदायक होती है और जल्दी दबसी नहीं।। करना । उ॰—देखिये से अॅखियान को बाज के लाज के बहुधा यह पक जाती है और धीरनी पचती है। भाजि के भीतर आई।-रघुनाथ । बाज रखना रोकना। बाथुल-संज्ञा स्त्री० [ देश.] एक प्रकार की छोटी मछली। मना करना । बाज रहना-दूर रहना । अलग रहना । बाचना-क्रि० अ० [हिं० बचना ] बचना । सुरक्षित रहना । वि० [अ० बअज ] कोई कोई। कुछ। थोड़े। कुछ विशिष्ट क्रि० स० बचाना । सुरक्षित रखना। जैसे,—(क) बाज़ आदमी बड़े ज़िद्दी होते हैं। (ख) बाज़ क्रि० स० [सं० वाचन ] पढ़ना । पाठ करना । पाँचना। मौकों पर चुप रहने से भी काम बिगर जाता है। (ग) वाचा संज्ञा स्त्री० [सं० वाचा ] (१) बोलने की शक्ति । (२) बाज़ चीजें देखने में तो बहुत अच्छी होती हैं, पर मज़बूत वचन । यातचीत । वाक्य । उ०—(क) रावन कुंभकरन वर बिलकुल नहीं होती। माँगत शिव विरचि बाचा छले।-तुलसी। (ख) तब क्रि० वि० बगैर । बिना । (क०) 30-अब तेहि बाज रॉक कुमार बोल्यो अस वाचा। मैं कंगाल दास हौं साँचा । भा डोली। होय सार तो बरगों बोलौं । —जायसी। -रखुराज । (३) प्रतिज्ञा। प्रण । उ०-गचा पुरुष संशा [सं० वाजिन् ] घोड़ा । उ०इतने सातो जात तुरुक हम बूमा । परगट मेरु, गुप्त छल सूझा ।-जायसी । हरि उतते आवत राज । देखि हिये संशय कह्यो गह्यो चरन बाचाबंध-वि० [सं० वाचा+बद्ध ] जिसने किसी प्रकार तजि बाज ।-विश्राम । का प्रण किया हो । प्रतिज्ञाबद्ध । उ०-बाड़ चढ़ती बेलरी संज्ञा पुं० [सं० वाद्य ] (1) वाय। बाजा । उ०-महामधुर बहु उरझी आसा फंद। टूटे पर जूट नहीं भई जो बाचाबंध । याज बजाई। गावहिं रामायन सुर छाई।-रघुराज । (२) ---कबीर। बजने या बाजे का शब्द। (३) बजाने की रीति । (४) बाछ-संज्ञा पुं० [सं० वत्स, प्रा० बच्छ वर्ष ] जमाल । गाँव में : सितार के ५ तारों में मे पहला जो पक्के लोहे का होता है। मालगुज़ारी, चंदे, कर आदि का प्रत्येक हिस्सेदार के हिस्से संज्ञा पुं० [ देश. ] ताने के सूतों के बीच में देने की के अनुसार परता । बछौटा । बेहरी । लकड़ी। संज्ञा पुं० दे० "बाछा"। बाजड़ा-संशा पुं० दे० "बाजरा"। बाछड़ा-संज्ञा पुं० दे० "बछया"। बाज़दावा-संज्ञा पुं० [ 10 ] अपने अधिकारों का त्याग। अपने बाछा-संशा पुं० [सं० वत्स, प्रा. बच्छ ] (1) गाय का बचा। दात्र या स्वत्व से बाज़ आना। मछवा । (२) लड़का । बच्चा । उ०—में आवत हौं तुम्हरे। क्रि०प्र०-लिखना।-लिखाना। पाछे । भवन जाहु तुम मेरे बाछे। -सूर । बाजन* -संज्ञा पुं० दे० "बाजा"। बाज-संज्ञा पुं० [अ० बाज ] (1) एक प्रसिद्ध शिकारी पक्षी जो बाजना-क्रि० अ० [हिं० बजना ] (१) बाजे आदि का बजना । प्रायः सारे संपार में पाया जाता है। यह प्रायः चील से छोटा . उ.-जत अलिगन कुंज बिहंगा। बाजत बाजन उठत पर उससे अधिक भयंकर होता है। इसका रंग मटमला, तरंगा ।-विश्राम । (२) लड़ना। भिड़ना । झगड़ना । पीठ काली और आँखे लाल होती है। यह आकाश में , (३) कहलाना। प्रसिद्ध होना। पुकारा जाना। (४) लगना। उड़ती हुई छोटी मोटी चिड़ियों या कवृतरों आदि को। आघात पहुँचना। उ.-उठि बहोरि मारुति युवराजा । सपटकर पकर लेता है। प्राय: शौकीन लोग इसे दूसरे हने कोपि तेहि घाव न बाजार-सुलसी। पक्षियों का शिकार करने के लिये पालते भी है। इसकी वि० बजनेवाला । जो बजता हो। कई जातियाँ होती है । (२) एक प्रकार का बगला । (३) कि० अ० [सं० व्रज् ] जा पहुँचना। सामने मौजूद हो तीर में लगा हुआ पर। जाना । (क्व०) प्रत्य० [फा०] एक प्रत्यय जो शब्दों के अंत में लाकर बाजरा-संज्ञा पुं॰ [सं० वर्जरी ] एक प्रकार की बड़ी घास जिसकी रखने, खेलने, करने या शौक रखनेवाले आदि का अर्थ बालों में हरे रंग के छोटे छोटे दाने लगते हैं। इन दानों की देता है । जैसे, दगाबाज़, कबूतरबाज, नशेबाज़, दिल्ल गिनती मोटे अनों में होती है। प्रायः सारे उसरी, गीबाज़ आदि। पश्चिमी और दक्षिणी भारत में लोग इसे खाते हैं। इस वि० [फा०] वंचित । रहित । अनाज की खेती बहुत सी बातों में ज्वार की खेती से मुहा०-बाज़ आना-(1) खोना । रहित होना । जैसे,-हम मिलती जुलती होती है। यह खरीफ की फसल है और से बाज़ आए। (२) दूर होना । अलग होना । पास न | प्रायः ज्वार के कुछ पीछे वर्षा ऋतु में बोई और