पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७०

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बिन्हनी बियाजू पुष्टिकारक होता है। इससे एक प्रकार का तेल भी निकाला विबहार -संशा पुं० दे. "म्यवहार" । जाता है। बनौर । कुकटी। बिवाई-संशा श्री० [सं० विपादिका ] एक रोग जिसमें पैरों के बिन्हनी -संज्ञा स्त्री० [हिं० विंधना ] जुलाहों की वह लकड़ी या तलुए का चमड़ा फट जाता है और नहाँ ज़ख्म हो जाता छद जो ताने में लगा रहता है और जो तागे से लपेटन है। इसमे चलने फिरने में बहुत कष्ट होता है । में बँधा रहता है। यह रोग प्रायः जाड़े के दिनों में और बुड्ढों को हुआ विपच्छ -संशा पुं० [सं० विपक्ष ] शत्रु । बेरी। दुश्मन । करता है। उ.-जिपके पैर न फटी बिवाई । वह क्या वि० (१) अप्रसन्न । नाराज़ । प्रतिकूल । विमुख । विरुद्ध । जाने पीर पराई। उ.-विध न ईधन पाइए सायर जुरै न नीर । पर उपास क्रि० प्र०-फटना। कुबेर घर जो विपच्छ रघुबीर ।-तुलसी। बिबाकी-संज्ञा स्त्री० [अ० बेबाका ] (१) बेबाक होने का भाव । विपच्छी-संज्ञा पुं० [सं० विपक्षिन् ] (१) वह जो विपक्ष का हिसाव आदि का साफ होना । (२) समाप्ति । अंत । हो। विरोधी । (२) शत्रु । दुश्मन । विधि-वि० [सं० दि ] दो। उ०—(क) बिदि रसना तन स्याम बिपति, विपता*-संज्ञा स्त्री० दे० "विपत्ति"। है वक्र चलनि विष खानि । —तुलसी । (ख) सोभित बिपत्त, बिपत्ति-संज्ञा स्त्री० दे० "विपत्ति" । श्रवन कनक कुंटल कल लंबित बिधि भुजमूले । -तुलसी । बिपद, बिपदा -संज्ञा स्त्री० [सं० विपद ] आफ़त । मुसीवत । (ग) माणिक निखर सुख मेरु के सिखर विधि कनक बनाए संकट । विपति। विधि कनक सरोज के।-देवदत्त । बिपर*-संज्ञा पुं० [सं० विप्र] बाह्मण : उ०—विपर अपीसि बिनति बिमन* -वि० [सं० विमनन् ] (1) जिसे बहुत दुःख हो । (२) अउधारा । सुआ जीउ नहिं करउँ निरारा।—जायसी । उदास । सुस्त । चिंतित । बिफर.*-वि० दे. "विफल"। कि. वि. बिना मन के। बिना चित्त लगाए । अनमना बिफरना*+-क्रि० अ० [सं० विप्लवन (१) विप्लव करने पर उद्यत होकर। हो जाना । बागी होना। विद्रोही होना । उ०-घुमति हैं बिमोहना-क्रि० स० [सं० विमोहन ] मोहित करना । लुभाना झुकि झुमति हैं मुख चूमति हैं थिर है न थकी ये। मोहना । उ०-एक नयन कवि मुहमद गुनी । सोइ चौकि परै चितवै बिफरें सफरै जलहीन ज्यों प्रेम पकी विमोहा जेइ कवि सुनी। —जायसी । ये। रीझतिहं बुलि खीझतिहें असुवान सों भीजती सोभ बिमौरा-संज्ञा पुं० [सं० बलमीक ] टीले के आकार का दीमक तकी ये । ता छिन ते उचकी न कहूँ सजनी अग्वियाँ हरि के रहने का स्थान । वल्मीफ । बामी। रूप छकी ये । (२) बिगद उठना । नाराज़ होना। बिय* -वि० [सं० द्वि ] (1) दो। युग्म । (२) दूसरा । बिबछना -क्रि० अ० [सं० विपक्ष ] (1) विरोधी होना । (२) *संशा गु० दे. "बीज"। उलझना । अटकना । फँसना । उ0वियछि गयो मन बियर-संज्ञा स्त्री॰ [ 0] जौ की बनी हुई एक प्रकार की हलकी लागि ज्यौं ललित त्रिभंगी संग । सूधो रहै न और तनि अंगरेजी शराब जो प्रायः स्त्रियाँ पीती है।। नउत रहै वह अंग -सनिधि । बियरसा-संज्ञा पुं० [देश० ] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो बिबरन* -वि० [सं० विवर्ण] (1) जिसका रंग खराब हो पहाड़ों में ३००० फुट की ऊँचाई तक होता है । इसकी गया हो। बदरंग। (२) चिंता या ग्लानि आदि के कारण लकड़ी कुछ लाली लिए काले रंग की, बहुत मज़बूत और जिसके चेहरे का रंग उड़ गया हो। जिसके मुख की कांति कदी होती है और वही कठिनता से कटती है। लकड़ी नष्ट हो गई हो। जिसका चेहरा उतरा हो। उ०-(क) प्रायः इमारत और मेज़-कुरसी आदि बनाने के काम में विबरन भयउ निपट नरपाल । दामिनि हनेउ मनहु तरु आती है। इसमें एक प्रकार के सुगंधित फूल लगते हैं; और तालू-तुलसो । (ख) बिबरन भयउ न जाइ निहारी। गोंद भी होती है जो कई कामों में आती है। मारेसि मनहुँ पिता महतारी । सुलसी। बियहुता-वि० [ विवाहित ] [ स्त्री० वियहुती ] जिसके साथ विवाह संज्ञा पुं० दे० "विवरण"। हुआ हो। जिसके साथ शादी हुई हो। विवाहित । बिबस*1-वि० [सं० विवश ] (1) मजबूर । विवश । (२) बिया -संज्ञा पुं० दे० "बीज"। परतंत्र । पराधीन । वि० [सं० द्वि ] दूसरा । अन्य । अपर । कि० वि० [सं० विवश] विवश होकर । लाचारी से । बेबसी संज्ञा पुं० [सं० दि] शत्रु । (डि.) की हालत में। उ.-बिबसहु जासु नाम नर कहीं। वियाजो-संज्ञा पुं० दे. “व्याज" । जनम अनेक रचित अध दहहीं। तुलसी। । वियाजू-वि० [सं० व्याज+ऊ ] (धन) जो व्याज पर लगाया