पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बियार २४६४ विरादरी या दिया जाय। जिस (धन) का ब्याज लिया जाय । सूद विरतिया-संशा पुं० [सं० वृत्ति+इया (प्रत्य॰)] हज्जाम या बारी पर दिया हुआ (रुपया)। आदि की जाति का वह व्यक्ति जो विवाह संबंध ठीक करने बियाड़ा-संज्ञा पुं० [हिं० रिया+ड़ (प्रत्य०) ] वह खेत जिसमे के लिये वर-पक्ष की ओर से कन्यावालों के यहाँ अथवा पहले बीज बोए जाते हैं और छोटे छोटे पौधे हो जाने पर कन्या-पक्ष से वर-पक्ष की योग्यता, मर्यादा, अवस्था आदि जहाँ से उखाब कर दूसरे स्त में रोपे जाते हैं। देखने के लिये जाता है। बरेखी करनेवाला। बियाधा* -संज्ञा पुं० दे० "म्याधा"। । बिरथा-वि० [सं० व्यर्थ ] निरर्थक। फिज़ल | बेकाम व्यर्थ। वियाधि-संशा स्त्री० दे. "म्याधि"। - क्रि० वि० बिना किसी कारण के । अनावश्यक रूप से। बियान-संज्ञा पुं० [हिं० चियाना । (१) प्रसव । बच्चा देने की बिरदा-संशा पुं० [सं० विरुद ] (1) बड़ाई । यश । नेकनामी । क्रिया। (२) बच्चा देने का भाव । वि.दे. "व्यान"। (२) दे. "विर"। विशेष—यह शब्द विशेष कर पशुओं के लिये प्रयुक्त होता है। बिरदैत-भंज्ञा पुं॰ [हिं० बिग्द+त (प्रत्य॰)] बहुत अधिक प्रसिद्ध बियाना-क्रि० स० [सं० विजनन ] (पशुओं आदि का) बचा वीर या योद्धा । ऐसा वीर या दानी पुरुष जिसका नाम देना । जनना। बहुत दूर तक हो। जिसके नाम का विरद बखाना जाय । वि० दे० "ध्याना"। वि० नामी । प्रसिद्ध । बियापना-क्रि० स० दे० "ध्यापना"। बिरधा-वि० दे० "वृद्ध"। बियावान-संज्ञा पुं० [फा०] ऐसा उजाद स्थान या जंगल जहाँ : बिरधाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० वृध+आई (प्रत्य)बुढ़ापा । वृद्धावस्था। ___ कोसों तक पानी न मिले। . विरधापन-संज्ञा पुं० [सं० वृद्ध+हिं० पन (प्रत्य०)] (१) वृद्ध बियारी, बियारु*-संशा स्त्री० [सं० बि+अद | रात का भोजन। होने का भाव । बुढापा । (२) वृद्ध होने की अवस्था। विशेष-दे. "प्यार"। वृद्धावस्था। चियाल*संशा पुं० दे. "ब्याल" । बिरमना -क्रि० अ० [सं० विलंबन ] (१) ठहरना । रुकना। बियालू*/-संज्ञा स्त्री० [वि+अ ) रात का भोजन । विशेष (२) सुस्ताना । आराम करना । (३) मोहित होकर फंस रहना। बियाह* -संज्ञा पुं० दे० “विवाह"। बिरमाना-क्रि० स० [हिं० विरमना का स० रूप 1 (1) ठह- बियाहतार-वि० सी० [सं० विवाहित ] जिसके साथ विवाह हुआ। राना । रोक रखना । (२) मोहित करके फंसा रखना । (३) हो। जिसके साथ नियमानुसार पाणिग्रहण हुआ हो। म्यतीत करना । गुज़ारना । बिताना। बियो-संशा पुं० [हिं०] बेटे का बेटा । पोतः। | बिरला-वि० [सं० विरल] कोई कोई । बहुतों में से कोई एकाध । विरंग-वि० [हिं० वि० (प्रत्य०) रंग] (1) कई रंगों का इका दुका । जैसे, साहित्य क्षेत्र में ऐसा कोई विरला ही जिसमें एक से अधिक रंग हों । जैसे, रंग बिरंग। (२) होगा जो आपको न जानता हो। बिना रंग का। जिसमें कोई रंग न हो। विरवा-संज्ञा पुं० [सं० बिरुह ] (1) वृक्ष । (२) पौधा। विरंज-संत्रा पुं० [फा०] (१) धावल । (२) पका हुआ चावल । भात। (३) चना । बूट । बिरंजी-संज्ञा स्त्री० [?] लोहे की छोटी कोल । छोटा काँटा। बिरवाही -संज्ञा स्त्री० [हिं० विरवा+ही (प्रत्य॰)] (8) छोटे विरगिह-संज्ञा स्त्री० [ अं. बिगेड ] (1) सेना का एक विभाग, पौधों का कुंज या बारा । छोटे पौधों का समूह । (२) वह जिसमें कई रेजिमेंः या पलटने होती है। (२) काम करने स्थान जहाँ छोटे छोटे पौधे उगाए गए हों। बालों का कोई ऐसा दल जो एक ही तरह की वर्दी पहनता बिरषभ-संज्ञा पुं० दे० "वृषम"। हो और एक ही अधिकारी की अधीनता में काम करता विरसन-संज्ञा पुं० [हिं० ] ज़हर । विष । हो । जैसे, फायर ब्रिगेर।

बिरही-संज्ञा पुं० [सं० विरहिन् ] [स्त्री० बिरहिन, बिरहिनी ]

बिरछा *-संज्ञा पुं० दे० 'वृक्ष"। वियोग से पीड़ित पुरुष । वह पुरुष जो अपनी प्रेमिका के विरछिक, बिरछीक* -संज्ञा स्त्री० दे. "वृश्चिक"। विरह से दु:खित हो। विरझाना-क्रि० अ० [सं० विरुद्ध ] उलझना । झगड़ना । उ.- बिराजना-क्रि० अ० [सं० वि+रंजन ] (9) शोभित होना । बदन चंद्र के लखन को शिशु ज्यौं विरझत नैन । रसनिधि। : शोभा देना । (२) बैठना। विरतंत, विरतांत-संक्षा पुं० दे. "वृत्तांत"। विरादर-संज्ञा पुं॰ [फा०] माई । भ्राता। बिरताना*-क्रि० स० [सं० वर्तन ] विभाग करके सब को बिरादी-संशा खी० [फा०] (1) भाईचारा। बंधुत्व । (२) अलग भक्षा देना। बाँटना। जातीय समाज । एक ही जाति के लोगों का समूह ।