पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७८

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विसाहनी २४७१ बिहंग - ENTER घर कीन्ह बहोर । —जायसी । (२) मोल लेने की क्रिया । चढ़ा जेहि नाहीं । कंचन रेख कसौटी कसी । जनु धन महँ खरीद । उ.-(क) पूरा किया बिसाहना बहुरि न आवै दामिनि परगसी। सुरिज किरन उनु गगन बिसेखी । हट्ट ।- कबीर । (ख) इहाँ बिसाहन करि चलो आगे विषमी जमुना माँझ सरस्वति देखी।-जायसी । बाट ।-कबीर। बिसेन-संशा पुं० [?] क्षत्रियों की एक शाखा जिसका राज्य बिसाहनी-संशा सी० [हिं० बिसाहना ] सौदा। जो वस्तु मोल किसी समय वसमान गोरखपुर के आस पास के प्रदेश से ली जाय । उ०—(क) जो कहुँ प्रीति बिसाहनी करतौ | | लेकर नेपाल तक था। मन नहि जाय । काहे को कर मांगतो विरह जगातौ बिसेसर*-संज्ञा पुं० दे० "विश्वेश्वर"। आय ।--रसनिधि । (ख) कोई कर विसाहनी काहू के न बिस्कुट-संज्ञा पुं० [ अं० ] ख़मीरी आटे की तंदूर पर पकी हुई निकाय। कोऊ चालै लाभ सों कोऊ मूर गवाग । —जायसी। एक प्रकार की टिकिया जो बहुत हल्की होती है और यिसाहा-संज्ञा पुं० [हिं० बिसाहना ] सौदा । खरीदी हुई दूध में डालने से फूल जाती है । बिस्कुट नमकीन और मीठा वस्तु । जो वस्तु मोल ली जाय । विसाहना । बिपाहनी।। दोनों प्रकार का होता है। इसे योरप के लोग बहुत ग्वाते हैं। उ.--(क) सिंघलदीप जाय सब चाहा। मोल न पाउब विस्तर-संशा पुं० [सं० विस्तर । फा०] (१) बिछौना । विछावन। जहाँ बिसाहा ।—जायसी । (ख) जिन्ह यहि हाट न लीह वह मोटा करदा जिसे फैला कर उस पर सोएँ । शयना- रिसाहा । ताकहँ आन हाट किन लाहा।-जायमी। सन । (२) विस्तार । वहाव । उ० ---बहुत काल लगि दोउ बिसिख-संशा पुं० दे० "विशिख"। युद्ध कीन्हो । त्रिस्तर भीति न मे कहि दीन्हो।-रघुराज । विसियर *-वि० [सं० विषधर ] विषला । विषयुक्त। उ०- | विस्तरना*-क्रि० अ० [सं० विस्तरणा ] फैलना । इधर उधर काक बरन छघि मैन नैन बिसियर बिनु सायक ।- बदना। हनुमान। क्रि० स० (१) फलाना। बढ़ाना । अधिक करना । उ.- दिसुकर्मा*-संशा पुं० दे० "विश्वकर्मा"। दुःख मूल गनि पार, पाप कहँ कुमति प्रकास । मोह कुमति बिसुनना-कि० अ० [हिं० सुरकना, सुनकना ] कोई वस्तु खाते बिस्तर क्रोध मोहै उल्लासे । मतिराम । (२) विस्तार समय उसका कुछ अंश नाक की ओर चढ़ जाना। से कहना । बढ़ा कर वर्णन करना । उ०-गर्भ परीक्षित दिसुनी-संज्ञा स्त्री० [सं० विष्णु ? ] अमरवेल । (अनेकार्थ) रक्षा करी । सोई कथा सकल विस्तरी ।-सूर। बिसुवा-संज्ञा पुं. दे. “बिस्वा"। विस्तरा-संज्ञा पुं० दे. "विस्तर"। बिसूरना-कि० अ० [सं० विमरण शोक ] सोच करना । चिता । विस्तारना-कि० स० [ मे० विरतारण ] विस्तृत करना। फैलाना। करना। खेद करना। मन में दुःश्व मानना। उ.- उ.-तब आरन प्रभाव विस्तारा । निज बस कीन्ह सकल (क) जानि कटिन शिव चाप बिसूरति । चली राखि उर | संसारा। तुलसी । स्यामल मूरति ।-तुलसी । (ख) जनु करुना बहु बेप विस्तुइया-संशा सी० [हिं० विय + तूना-टपवाना, चूना ] बिसूरति ।-तुलसी। छिपकली । गृहगोधा । संज्ञा स्त्री० चिंता । फिक्र । सोच । उ०-लालधी विस्वा-संशा पुं० [हिं० बीसवा ] एक बीघे का बीसवाँ भाग । लबार बिललात द्वार द्वार, दीन बदन मलीन मन मिद ना मुहा०-बीस विस्वा-निश्चय । निस्मदेह । उ०—(क) सातहु बिसूरना।-तुलसी। दीपन के अवनीपति हारि रहे जिय में जब जाने । बीस- बिसेख-वि० दे० "विशेष"। बिसे यत भंग भयो, सो कही अव केशव को धनु ताने- बिसेखता*-संशा स्त्री० दे० "विशेषता"। केशव । (ख) लम्पत धूम अलि सीस चक के गुच्छा बिसेखना *कि० अ० [सं० विशेष ] (1) विशेष प्रकार से दिपत। धूमकेतु विसुधीस उयो वियोगिन को अहित ।- दर्णन करना । व्योरेवार वर्णन करना । विशेष रूप से गुमान । (ग) बीसो बिसे वृषभानु सुता पर जानत कान्ह कहना । विवृत करना । उ.- नैन नाहि पै सब कछु देवा।। कन्यो कछु सेना ।—देव । (घ) देखे बिना दोष दे कवन भाँति अस जाय बिसेखा। जायसी । (२) निर्णय सीखा । नरक परै सो बिस्वे बीसा ।-रघुनाथदास । करना । निश्चित करना । उ०—(क) पंडित गुनि सामु- बिस्वादार-संज्ञा पुं० [हिं० बिस्वा+का दार ] (1) हिस्सेदार । दिक देखा । देखि रूप औ लगन विसेखा।—जायसी । पट्टीदार । (२) किसी बड़े राजा या तअल्लुक्केदार के (ख) कारे कमल गहे मुख देखा । ससि पाछे जनु राहु अधीन ज़मींदार । बिसेखा। जायपी। (३) विशेष रूप से होना या प्रतीत | बिस्वास-संशा पुं० दे० "विश्वास" । होना । उ०-बरनों मांग सीस उपराहीं। सेंदुर अबर्हि विहंग-संज्ञा पुं० दे. “विहंग"।