पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/१७७

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विसहर २४७० विसाहना बिसहर *-संशा पुं० [सं० विधधर, प्रा०बिसहर ] सर्प । उ०—(क) प्रभाव करना। ज़हर का असर करना । जहरीला होना। भँवर केस वह मालति रानी । विसहर लरहिं ले जैसे,—कुसे का काटा बिसाता है। अरधानी। जायसी । (ख) विसहर सी लट सों लपटि बिसारद*-संशा पुं० दे० "विशारद"। मो मन हठि लपटात । कियो आपनो पाइहै तू तिय कहा बिलारना-क्रि०स० [हिं० बिसरना ] भुला देना । स्मरण न रखना। सकात ।-मुबारक ध्यान में न रखना । विग्मृत करना। उ.-(क) धीर विसहरू-संज्ञा पुं० [हि, रिमहना+रू (प्रत्य॰)] मोल लेने खिम्खापन आपनहू को बिसूरि बिसूरि विसारत ही बन्यो । वाला । खरीदार। -~-धीर । (ख) करहि आरती पुर नर नारी । देहि निछा- विसहिनी-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की चिड़िया। वरि विस बिधारी ।--सुलसी । (ग) पाथर महुँ नहिँ पसँग बिसायध-वि० [सं० वसा-मजा, चरबी+गंध ] सदी मछली की बिसारा । जहँ तहँ सँवर दीन्ह तुइँ चारा ।-जायसी । सी गंधवाला । जिससे सड़ी मछली को सी गंध आती हो। (घ) देश कोश की सुरति बिसारी। तुलसी। गंज्ञा मी० मछली की सी गंध । सड़े मांस की सी गंध। संयोक्रि०-देना।। उ.---जो अहवाय भरे अरगजा । तोहु विसायध ओहि बिसारा-वि० [सं. विषाल ] [स्त्री० विमारी | विष भरा । विषाक्त। नहि तजा ।—जायसी।। विषैला। मुहा०—बिबिध आना-सड़ी मछली के समान दुर्गध आना। बिसास-संशा पुं० दे० "विश्वास"। विसाख-संशा पा० दे० "विशाखा"। | बिसासिनि, बिसासिन-संशा मी० [सं० अविश्वामिना ] (स्त्री) बिसात-संशा स्त्री० [अ० ] (१) हैसियत । समाई। वित्त । धन जिस पर विश्वास न किया जा सके। विश्वासघातिनी । संपत्ति का विस्तार । औक़ात । जैसे,—मेरी बिसात नहीं है दगाबाज़ (स्त्री)। उ०—(क) लाज को न डराति अबूझ कि मैं यह मकान मोल। (२) जमा । पूंजी। उ. बिसामिनि के छल को पछिताति है। (ग्व) राखि गई घर (क) मन धन हनी बिमान जो सो तोहिं दियो बताय । सूने बिसामिनि सासु जंजाल ते मोहिन छोयो। याकी बाकी विरह की प्रीतम भरी न जाय ।रयनिधि विसासो*-वि० [सं०अविश्वासी] [स्त्री० बिसासिन] जिस पर विश्वास (ब) हे रघुनाथ कहा कहिए पिय की तिय पूरन पुन्य न किया जा सके। विश्वासघाती । दगाबाज़ । धोखेबाज़ । विमात रयी ।-रघुनाथ । (३) सामर्थ्य । हकीकत । छली । कपटी। उ०—(क) कबहूँ वा विसासी सुजान के स्थिति । गणना । उ॰—(क) मंदिनि मेरु अजादि सुर : आंगन मो असुवान को लै बरयो।-घनानंद। (ख) सेग्वर मो इक दिन नषि जात । गजश्रुति सम नर आयु घर ताकी घेर करें सिगरे पुरवासी विसासी भये दुखदात हैं। -शेखर । कौन बिसात ?---विश्राम । (ख) स्त्री की बिसात ही (ग) जाप हौं पठाई ता विसासी पै गई न दीस, संकर को कितनी, बड़े बड़े योगियों के ध्यान इस बरसात में छूट। चाही चंदकला ते लहाई री।-तृलह । (ब) गोकुल के चख जाने है!-हरिश्चंद्र । (ग) समय को अनादि अनंत में चक चावगो, चोर लौं चौंके अयान विपासी । -गोकुल । धारा के प्रवाह में १९ वर्ष के जीवन की बिसात ही क्या ? बिसाह-संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय मोल लेने का काम । खरीद। क्रय । -बालकृष्ण । (५) शतरंज या चौपस आदि खेलने का बिसाहना-क्रि० स० [हिं० विसाह+ना (प्रत्य॰)] (1) खरीदना । कपड़ा या बिछौना जिसपर खाने बने होते हैं। उ. मोल लेना। क्रय करना । दाम देकर लेना। उ०-(क) हित बिसात धर मन नरद चलि के देइ न दाव । यासो: जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो बेचिए बिबुध प्रीतम की रजा बाजू खेलत चाव । --रसनिधि । धेनु, रासभी बिलाहिए।—तुलसी । (ख) हौं धनिजार तो विसाती-सज्ञा पुं० [अ० ] (१) बिस्तर मिछाकर उस पर सौदा यनिज बिसाही। भर व्योपार लेहु जो चाहौ।—जायसी । रखकर बेचनेवाला। (२) छोटी चीज़ों का दूकानदार । (ग) मेरे जान जव तें ही जीव है जनम्या जग तब तें सुई, तागा, लैंप, रंग, चूकी, गोली तथा खिलौने इत्यादि । बिसाहो दास लोभ कोह काम को।—तुलसी। (घ) हार्टी छोटी छोटी वस्तुओं का बेचनेवाला । उ०—बदई संगतरास . में रखी हुई बेचने बियाहने की वस्तुएँ।-लक्ष्मणसिंह । बिसाती। सिकलीगर कहार की पाती। (२) जान बूझ कर अपने पीछे लगाना । अपने साथ बिसाना-क्रि० अ० [सं० वश ] पश चलना । बल चलना। कावु करना । जैसे, रार बिसाहना, पैर बिसाहना । उ० --निदान चलना । उ०—(क) जो सिर पर आय सो सहै। कछु न पहले तो हैदरअली के बेटे टीपू सुलतान का सिर खुजलाया विसाय काह सों कहै। जायसी। (ख) का बिसाय जो कि इन अंगरेजों से बैर बिसाहा ।—शिवप्रपाद । गुरु अम बुझा । चका ब्यूह अभिमनु जी सूझा।—जायसी । संज्ञा पुं० (१) मोल लेने की वस्तु । काम की चीज़ -क्रि० अ० [हिं० विष, बिस+ना (प्रत्य॰)] विष का; जिसे खरीदें। सौदा। उ.--सबही लीन्ह बिसाहन और