पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/२१

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फिरंगबात २३१४ फिरता फिरंगबात-संज्ञा पुं० [फिरंग+सं० वात ] वातज फिरंग। दे. फिरक-संशा स्त्री० हिं० फिरना । एक प्रकार की छोटी गादी "फिरंग (२)"। जिस पर गांव के लोग चीजों को लादकर इधर उधर ले फिरंगी-वि० [हिं० फिरंग ] (1) फिरंग देश में उत्पन्न । (२): जाते हैं (रुहेलखंड)। फिरंग देश में रहनेवाला । गोरा । (३) फिरंग देश का। फिरकना-क्रि० अ० [हिं० फिरना ] (१) थिरकना । नाचना । संशा पुं० [ स्त्री० फिरंगिन ] फिरंग देश वासी। युरोपियन । (२) किसी गोल वस्तु का एक ही स्थान पर घूमना । लट्टू उ०—हबशी रूमी और फिरंगी। यह यह गुनी और तेहि की तरह घूमना या चक्कर खाना । संगी।-जायसी। फिरका-संशा पुं० [अ० ] (1) जाति । (२) जत्था । (३) य । संशा श्री. विलायती तलवार । युरोप देश की बनी तलवार। संप्रदाय । उ.-चमकती चपला न, फेरत फिरंगें भट, इंद्र को चाप फिरकी-संज्ञा स्त्री० [हिं० फिरकना ] (1) वह गोल या चक्राकार रूप वैरप समाज को।-भूषण। पदार्थ जो बीच की कीली को एक स्थान पर टिकाकर घूमता फिरंट-वि० [हिं० फिरना ] (१) फिरा हुआ । विरुन्छ । खिलाफ। हो। (२) लड़कों का एक खिलौना जिसे वे नचाते हैं। (२) विगा हुआ। विरोध या लड़ाई पर उद्यत । जैसे, फिरहरी । (३) धकई नाम का खिलौना। उ.-नई बात ही बात में वह मुझसे फिरंट हो गया । लगनि कुल की सकुचि विकल भई अकुलाय । दुई ओर क्रि० प्र०-होना। एची फिर फिरकी लौ दिन जाय । -बिहारी। (४) फिर-क्रि० वि० [हिं० फिरना ] (1) जैसा एक समय हो चुका है : चमड़े का गोल टुकड़ा जो तक में लगाकर घरखे में वैसा ही दृसरे समय भी। एक बार और । दोबारा । लगाया जाता है। चरखे में जब सून कातते हैं तब उसके पुनः । जैसे, इस बार तो छोड़ देता हूँ, फिर ऐसा काम लच्छे को इसी के दूसरे पार लपेटते हैं। (५) लकड़ी, धातु न करना । उ.-नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिर । वा कद्दू के छिलके आदि का गोल टुकड़ा जो तागा बटने आइयो खेलन होरी।-पाकर।। के तकवे के नीचे लगा रहता है। (६) मालखंभ की यौल-फिर फिर-बार बार। कई दफा । उ.-फिर फिर एक कसरत जिसमें जिधर के हाथ से मालखंभ लपेटते हैं बुझति, कहि कहा, कह्यो साँवरेगात । कहा करत देखे कहा ' उसी ओर गर्दन झुकाकर फुरती से दूसरे हाथ के कंधे पर अली ! चली क्यों जात ?-विहारी। मालखंभ को लेते हुए उड़ान करते हैं। (२) आगे किसी दूसरे वक्त। भविष्य में किसी समय। यो०-फिरकी का नक्की कस-मालखंभ की एक कसरत । और वक्त । जैसे,—इस समय नहीं है फिर ले जाना। इसमे एक हाथ अपनी कमर के पास से उलटा ले जात (३) कोई यात ही रुकने पर । पीछे । अनंतर । उपरांत । है और दूसरे हाथ से बगल में मालखम दबाते है और बाद में। जैसे,--(क) फिर क्या हुआ? (ख) लखनऊ फिर दोनों हाथों की उगलियों को गंठ लेते है। इसके पीछे से फिर कहाँ जाओगे? उ.---मेरा मारा फिर जिये तो जिधर का हाथ कमर पर होता है उसी और सिर और हाथ न गहौं कमान-कबीर । (४) तब । उस अवस्था सब धड़ को शुमा कर सिर को नीचे की ओर झुकाते हुए में । उस हालत में । जैसे,—(क) जरा उसे छोड़ दो फिर मालवा मे लगा कर दंडवत करते है। फिरकी दंड-एक देखो कैसा झल्लाता है। (ख) उसका काम निकल प्रकार की कसरत या दंड जिसमें दंड करते समय दोनों हाथों जायगा फिर तो वह किसी से बात न करेगा। उ०-सुनते को जमा कर दोनों हाथों के बीच में से सिर देकर कमान के धुनि धीर छुटै छन में फिर नेकहु राखत चेत नहीं।- . समान हाथ उठाये बिना चक्कर मारकर जिस स्थान से चलते है हनुमान । तुम पितु-ससुर-सरिस हितकारी । उतर देउँ फिर वही आ जाते है। फिर अनुचित भारी । तुलसी। (७) कुश्ती का एक पैच । जब जोड़ के दोनों हाथ गर्दन मुहा०-फिर क्या है ?-तब क्या पूछना है। तब तो किसी पर हों अथवा एक हाथ गर्दन पर और एक भुजदंड पर हो बात की कसर ही नहीं है । तब तो कोई अड़चन ही नहीं है। तब एफ हाथ जोड़ की गर्दन पर रख कर दूसरे हाथ से तब तो सब बात बनी बनाई है। उसके लंगोट को पकड़े और उसे सामने मौका देते हुए (५) देश संबंध में आगे बढ़कर । और चलकर । आगे बाहरी टाँग मारकर गिरा दे। और दूरी पर । जैसे,—उस बाग के आगे फिर क्या है? फिरता-संशा पुं० [हिं० फिरना ] [ स्त्री० फिरती ] (1) वापसी । (६) इसके अतिरिक्त । इसके सिवाय । जैसे, वहाँ जाकर . (२) अस्वीकार । जैसे, हुंडी की फिरती। उसे किसी बात का पता न लगेगा, फिर यह भी तो है। वि० वापस । लौटाया हुआ । जैसे,—लिया हुआ माल कहीं कि वह जाय या न जाय। फिरता होता है।