पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४३७

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मायावीज २७२८ मारग मायाघीज-संज्ञा पुं० [सं०] 'ही' नामक तांत्रिक मंत्र । संज्ञा स्त्री० [देश॰] काली मिट्टी की जमीन । करैल मिट्टी मायासीता-संज्ञा स्त्री॰ [सं०] पुराणानुसार वह कल्पित सीता की भूमि । मरवा भूमि। जिम्पकी सृष्टि सीता-हरण के समय अग्नि के योग से हुई थी। मारकंडेय-संशा पुं० [सं० मार्कडेय ] पुराणानुसार एक ऋषि का (कुछ पुराणों तथा रामापणों में यह कथा है कि सीता-हरण नाम जो अष्ट चिरंजीवियों में से एक माने जाते है। इनके के समय भनि ने वास्तविक मीना को हटाकर उनके स्थान पिता का नाम मृकंड था। इनके विषय में यह प्रसिद्ध है पर मापा ये एक उत्पी मीता खड़ी कर दी थं) कि ये गदा जीवित रहने है और रहेंगे। माध्य । मायासुत-वि० संशा | सं०] मायादेवी के पुत्र, बुद्ध । मुहा०-मारकंडेय की आयु होना दीर्घ जाव। होना । निरायु मायारा-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का कल्पित अस्त्र जिसके होना । (आशीर्वाद) विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसका प्रयोग विधामित्र ने मारक-वि० [सं०] (1) मार डालनेवाला । मृत्युकारक । श्रीरामचंद्रजी को सिवाया था। संहारक । उ०—(क) लै उनारि याते नृपति भलो चामो मायिक-संज्ञा पुं० [सं०] माजूफल । धान । निरदोषिन मारक नहीं यह तारक दुखियान । वि० [सं०] (1) साया में बना हुआ । जो वास्तविक न . लक्ष्मणसिंह । (ख) सुकवि शिलन की आस एक अवलंब हो। बनावटी । जाली। उ.-कहि जग गति दायिक मुनि . 'उधारक । नहि तो कैसे बचती माझ्यौ मार सुमारक । नाथा। कहे कछुक परगारथ गाथा । लागी । (1) व्यास। (२) किसी के प्रभाव आदि को नष्ट करनेवाला । मायाधी । माया करनेवाला । घात पर प्रतिघात करनेवाला । जैसे,—यह औषध अनेक मायी-संज्ञा पुं० [सं० मायिन् ] (1) माया का अधिष्ठाता, परब्रह्म । प्रकार के विषों का मारक है। ईश्वर । (२) माया करने वाला व्यक्ति । (३) जादूगर । मारका-संज्ञा पुं० [अ० मार्क ] (१) चिह्न । निशान । (२) कियो संा रू० दे० "माई"। प्रकार का चिह्न जिससे कोई विशेषता सूचित होती हो। मायु-मंज्ञा पुं० [सं०] (1) पित्त । (२) शब्द । (३) वाक्य । संशा पुं० [अ० ] युद्ध । लबाई। (२) बहुत बड़ी या मायुक-वि० [सं० ] शब्द करनेवाला। महत्वपूर्ण घटना। मायुराज-संश। पु० [सं०] कुवेर के एक पुत्र का नाम । मुहा०--मारके की बात या काम कोई महत्वपूर्ण या बड़ी बात मायूर-संहा पुं० [सं० ] (1) वह रथ जो मयूरों से चलता हो। या काम। (२) मयूर । मोर । | मार-काट-संजा वी० [हिं० मारना+काटना] (1) युद्ध । लवाई। वि० मयूर-संबंधी । मोर का । जंग। (२) मारने काटने का काम । (३) मारने काटने मागरक-संज्ञा पुं० [सं०] वह जो जंगली मोरों को करता हो। का भाव । मायूग-संज्ञा स्त्री० [सं०] कट्टमर । मारकायिक-संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार मार के अनुचर । मायूरी-संशा स्त्री [ सं0 अजमोदा । मारकीन-संज्ञा स्त्री० [अ० नन्किन् । एक प्रकार का मोटा मायूस-वि० [फा०] निराश । ना-उम्मेद । कोरा कपड़ा जो प्रायः गरीशे के पहनने के काम में मायूसी-संज्ञा स्त्री० [फा निराशा । ना-उम्मेदी। आता है। मायोभव-सं। पु० [सं० ) (1) शुभ । अरछा। (२) सौभाग्य। मारखोप-संज्ञा पुं० [फा०] एक प्रकार की बकरी वा भेद जो मार-संशा पुं० [सं०] (1) कामदेव । (२) विघ्न । (३) विष ।। काश्मीर और अफगानिस्तान में होती है। यह प्रायः दो जहर । (४) धनुरा। तीन हाथ ऊँची होती है और ऋतु के अनुसार रंग बदलती संज्ञा स्त्री० [हिं० मारना ] (1) मारने की क्रिया या भाव । है। इसके सींग जड़ में प्राय: सटे रहते हैं और इसकी दादी (२) आघात । घोट । (३) जिस बस्नु पर मार पड़े । । बहुत लंबी और घनी होती है। निशाना । (४) मार-पीट । (५) युद्ध । लबाई । मारग*-संशः पुं० [सं० मार्ग ] राह । रास्ता । मार्ग। उ.- यौ०-मार-काट । मार-पीट । (क) दीएक प्लेसि जगत कह दीन्हा । भा निरमल जग अन्य० [हिं० मारना ] (1) अत्यंत । बहुत । उ०—(क) मारग धीन्हा ।-जायसी । (ख) मारग हुत जो अंधेर सुनत द्वारावती मार उतसो भयो..."।-सूर। (ख) सोने असूझा 1 भा उजेर सब जाना चूझा ।—जायसी । (ग) की अटारी चिनसारी मार जारी जैसे धास की अटारी जर , मारग चलाहि पयादेहि पाये। कोतल संग जाहि डोरि- गई फिरे बाँस ते । --राम । याये।-तुलसी । (घ) सहि भाँति पिय सेवा करिहौं।

  • संका बी० [हिं० माला ] माला । उ.-अमल कपोल मारग जनित सकल श्रम हरिहौं। तुलसी।

आरसी बाहूचक मार। केशव । मुहा०-मारग मारना-रास्ते में पथिक को लूट लेना । उ.-