पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४३६

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माया २७२७ मायावी धरि के कपट भेष भिक्षुक को दसकंधर तहँ आयो। हरि भलेहि आय अब माया कीजै । पहुनाई कहँ आयसु दीजै। लीन्हों छिन में माया करि अपने स्थ बैठायो।—सूर । —जायसी । (ख) साँचेहु उनके मोह न माया । उदासीन (ग) सब रावण मन में कहै करौं एक अब काम । माया को धन धाम न जाया ।-तुलसी। (ग) रख एक माया कर परपंच कै रचौं सु लछमन राम ।-हनुमन्नाटक । (घ) मोरे । जोगिनि होउँ चली सँग तोरे।-जायसी । साहस अनृत चपलता माया ।-तुलसी। (५) सृष्टि की मायाकार-संज्ञा पुं० [सं०] जादूगर । ऐंद्रजालिक । उत्पत्ति का मुख्य कारण । प्रकृति । उ0---(क) माया, ब्रह्म मायाक्षेत्र-संजा पं० [सं०] दक्षिण के एक तीर्थ का नाम । जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छिक अवनीया ।-तुलसी। मायाचार-संज्ञा पुं० [सं०मायावी। (ख) माया माहि नित्य ले पावै । माया हरि पद माहि मायाजीधी-संशा पुं० [सं० माया जीविन् ] जादूगरी से जीविका समावै ।-सूर । (ग) माया जीव काल के करम के सुभाव निर्वाह करनेवाला । जादूगर। के करैया राम वेद कहै ऐसी मन गुनिये । -तुलमी। (६) मायातंत्र-संत्रा पु. [सं०] एक प्रकार का तंत्र । ईश्वर की वह कल्पित शक्ति जो उसकी आज्ञा से स्य काम मायानि संया पुं० [सं०] तांत्रिका की वह नर-बलि जो अष्टमी करती हुई मानी गई है। उ०—तहँ लखि माया की प्रभुताई। पा नवमी को दुर्गा के सामने दी जाती है। मणि मंदिर सुधि मेज सुहाई। (७) इंद्रजाल । जादाल- मायाद-संज्ञा पुं॰ [सं० | कुंभीर । मगर । मय रचना । उ॰—जीति को सकै अजय रघुराई । माया ते मायादेवी-संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता का नाम । अस रची न जाई।-तुलसी। (4) इंद्रवज्रा नामक वर्ण- मायाधर, मायापटु-सं.1 पुं० [सं०] मायावी । वृत्त का एक उपभेद । यह वर्ग:वृत्त इंद्रवजा और उपद्रवज्रा मायापुरी-संशा सी० [सं० | एक प्राचीन नगरी का नाम । के मेल से बनता है। इस के दूसरे तथा तीसरे चरण का मायाफल-संशा पुं० [सं० माजूफल । प्रथम वर्ण लघु होता है। जैसे,-राधा रमा गौरि गिरासु माया-मोह-संगा पु० [सं० ] पुराणानुम्मार विष्णु के शरीर में सीता । इन्, विचारे नित नित्य गीता। कट अपारे अघ ओघ निकला हुआ एक कल्पित पुरुष जिसकी सृष्टि असुरों का मीता । हैहै म्पदा तोर भला सुबीता । (५) मगण, तगण, दमन करने के लिए हुई थी। यगण, संगण और एक गुरु का एक वर्णवृत्त । उ०-लीला मायायंत्र-संक्षा पुं० [सं० ] किमीको मोहने की विद्या । सम्मोहन। ही सों बासव जी में अनुरागौ। तीनो लोकै पालत नीके सुख मायारघि-संज्ञा पुं० [सं०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें पागौ। जो जो चाहो सो तुम वासों सब लीजो। कीजै सव शुद्ध स्वर लगते हैं। मेरी ओर कृपा सो सर भीजी ।-गुमान । (१०) मन मायावत्-संज्ञा पुं० [सं०] (१) मायावी । (२) राक्षस । असुर । दानय की कन्या जो विश्रवा को ब्याही थी और जिसमे (३) कंस का एक नाम । खर, दूषण, त्रिशिरा और सूर्पनखा पैदा हुए । उ०-माया मायावती-संज्ञा स्त्री० [40] कामदेव की स्त्री रति का एक नाम । सुन जन में कार लेखा । खर दूषण त्रिशिरा सुपनेखा।-- मायावाद-संा पुं० [सं० ] ईश्वर के अतिरिक्त सृष्टि की समस्त विश्राम । (११) देवताओं में से किसी की कोई लीला, वस्तुओं को अनित्य और असत्य मानने का सिद्धांत जिसके शक्ति, इच्छा वा प्रेरणा । उ०—(क) राम जी की माया । अनुसार यह सारी सृष्टि केवल माया या मिथ्या समझी कहीं धूप कहीं छाया । ( कहावत ) (ख) अति प्रचंड रघु जाती है। पति कै माया । जेहि न मोह अस को जग जाया।- मायावादी-संज्ञा पुं० [सं० मायावादिन् ] ईश्वर के ग्विा प्रत्येक वस्तु तुलसी । (ग) तेहि आश्रमहि मदन जब गयऊ । निज माया को अनित्य माननेवाला । वह जो मायात्राद के अनुसार वसंत निरमयऊ । --सुलसी (घ) बोले बिहँसि म्हेश, सारी सृष्टि को माया या भ्रम समझता हो । हरि माया बल जानि जिय। तुलसी । (१२) कोई मायाविनी-संशा स्त्री० [सं०] छल वा कपट करनेवाली स्त्री। आदरणीय स्त्री। (१३) बुद्धि । अक्ल । (१४) दुर्गा का एक ठगिनी। नाम । (१५) बुद्धदेव (गौतम) की माता का नाम । मायावी-संज्ञा पुं० [सं० मायाविन् ] [ स्त्री. मायाविनी ] (1) यौ०--मायाकार । मायाजीवी। बहुत बड़ा चालाक । छलिया। धोवेवाज़ । फरेबी । (२)

  • संज्ञा स्त्री० [दि. माता ] माता । माँ। जननी। एक दानव का नाम जो मय का पुत्र था और बालि से

उ.---विनवे रतनसेन की माया । माथे छात पाट नित लड़ने के लिए किष्किंधा में आया था। वाल्मीकि के अनु- पाया। जायसी। सार यह दुदुभी नामक दैत्य का पुत्र था। उ०--मय सुत

  • संज्ञा स्त्री० [हिं० ममता] (1) किसी को अपना समझने का । मायावी तेहि नाऊँ। आवा सो प्रभु हमरे गाऊँ।-

भाव । ममत्व । (२) कृपा । दया। अनुग्रह । उ०—(क)। तुलसी । (३) विल्ली। (४) परमारमा ।