पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/४९५

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मुरेरना २७८६ मुलकना मुरेरना-क्रि० स० दे० "मरोदना"। संज्ञा स्त्री० [हिं० मुडना] हिसार और दिल्ली आदि में मुरेगा-संज्ञा पुं० (१) दे. "मुँडेरा"1 (२) दे. "मरोड़"। : होनेवाली एक प्रकार की भैंस जिसके सौंग छोटे, जब के मरैठा-संज्ञा पुं० [हिं० मुरेठा ] नाव की लंबाई में चारों ओर पास पतले और उपर की ओर मुड़े हुए होते हैं। इस घूमी हुई गोट जो तीन चार इंच मोटे तख्तों से बनाई जाति की भैंसें और भैपे दोनों बहुत अच्छे समझे जाते हैं। जाती है और "गृहा" के ऊपर रहती है। मुर्रातिसार-संज्ञा पुं० दे० "मरो"। मरीअत-संज्ञा स्त्री० दे० "मुरौवत"। मुस-संा स्त्री० [हिं० मुडना या मरोडना ] (1) दोहोरों के सिरों मुगैवत-संज्ञा स्त्री० [अ० मुरब्बत ] (1) शील । संकोच । लिहाज। को आपस में जोड़ने की एक किया जिसमें गाँठ का प्रयोग मुहा०-मुरौवत तोड़ना=रुखाई का व्यवहार करना । शील के नहीं होता, केवल दोनों सिरों को मिलाकर मरोड़ या बट विरुद्ध आचरण करना। देते हैं। (२) कपड़े आदि में लपेटकर डाली हुई ऐंठन या (२) भलमनसी । आदमीयत । बल । जैसे, धोती की मुर्रा । क्रि० प्र०करना।-बरतना। मुहा०--मुर्श देना (१) कपड़ा फाड़ते समय उसके फटे हुए मुग-संज्ञा पुं० दे० "मुरगा"। अंश को बराबर माते या मोड़ते जाना जिसमें कपड़ा बिलकुल मुर्गकश-संज्ञा पुं० [फा० गुर्ग+केश (चोटी) ] मरमे की जाति का . माथा फटे । ( बजाज ) (२) धोती को ठहराने के लिए कमर एक पौधा जिसमें मुरगे की चोटी के से गहरे लाल रंग के पर कई वल लपेटकर छला सा बनाना। चौरे चौड़े फूल लगते है। इसे जटाधारी भी कहते हैं। (३) कपरे आदि को सरोककर बदी हुई बत्ती। मुर्गखाना-संज्ञा पुं० [फा०] मुरगों के रहने के लिए बनाया ' यौ०-मुर्गी का नेचा। हुआ स्थान। (४) चिकन या कशीदे की कढ़ाई का एक प्रकार जिसमें मुर्गाबी-संज्ञा पुं० दे० "मुरगावी"। बटे हुए सूत का व्यवहार होता है और जिसका काम उभार- मुर्चा-संज्ञा पुं० दे. "मोरचा"। दार होता है। (५) एक प्रकार की जंगली कड़ी। मुर्तकिय-वि० [अ० ] अपराध करनेवाला । अपराधी । कसूरवार। मुरी का नैचा-संशा पुं० [हिं० मुरी+नैचा ] एक प्रकार का नैचा मुजरिम। जिसमें कपड़े की मुरी या बसी बनाकर कसकर लपेटते जाते मुर्दनी-संज्ञा स्त्री० [फा० मुर्दन- मरना+ई (प्रत्य०) ] (1) आकृति है। यह देखने में उलटी चीन ही की तरह जान पवती है, का वह विकार जो मरने के समय अथवा मृत्यु के कारण परंतु वस्तुतः बत्ती होती है। इस बनावट का नया होता है । मुख पर प्रकट होनेवाले मृत्यु के चिह्न। उतना नहीं होता । जहाँ कपड़ा सड़ता है, वहीं मुहा०-चेहरे पर मुर्दनी छाना या फिरना=(१) मुख पर से बत्ती टूटने लगती है और बराबर खुलती ही चली मृत्यु के चिह्न प्रकट होना । (२) बहुत अधिक निराश या उदास, जाती है। होना। मुर्गेदार-वि० [हिं० मुरी+का. दार (प्रत्य॰)] जिसमें मुर्गी (२) शव के साथ उसकी अंत्येष्टि क्रिया के लिए जाना। पड़ी हो । ऐंठनदार । मुर्दे के साथ उसे गाड़ने या जलाने के स्थान तक जाना । मुर्वा-संज्ञा पुं० [सं०] मरूल या गोरचकरा नाम का जंगली (३) मृतक की अंत्येष्टि क्रिया के लिए जानेवालों का पौधा जिससे प्राचीन काल में प्रत्यंचा की रस्सी बनाई समूह। जाती थी। विदे. "गोरचकरा"। क्रि० प्र०--में जाना। मुर्वी-वि० [सं०] धनुष की प्रत्यंचा । मुर्दा-संज्ञा पुं० दे० "मुरदा"। मुर्शिद-संज्ञा पुं० [अ० ] (१) सुमार्ग बतानेवाला । मार्गदर्शक । मुर्दावली-संशा स्त्री० दे० "मुदैनी"। गुरु। (२) श्रेष्ठ । बड़ा । (३) उस्ताद । चतुर । चालाफ । वि० मृतक के संबंध का । मुरदे का। होशियार । (४) पाजी। नटखट । धूर्स । (व्यंग्य) मुर्दासिंगी-संज्ञा पुं० दे० "मुरदासख"। मुलका-संज्ञा पुं०२० "मल्क" 13.--नव नागरि तन मुलक मुर्मुर-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) कामदेव । (२) सूर्य के रथ के लहि जोबन आमिल जोर । घटि बदि ते बहि षटि रकम घोड़े। (३) भूसी की आग । तुषाग्नि। करी और की और ।-बिहारी। मुर्रा-संज्ञा पुं० [हिं० मरोक या मुरना ] (8) मरोगफली नाम की . मुलकना*+-क्रि० अ० [सं० पुलकित ? ] मंद मंद हसना । ओषधि । इसकी एता जंगलों में होती है। (२) पेट में पुलफित होना । नेत्रों में इसी प्रकट करना । मुसकराना। ऐंठन होकर पतला मल निकलना और बार बार दस्त होना। : उ.-(क) पर-तिय दोष पुरान सुनि हैसि मुरली सुखदानि । मरोड़ । (३) पेट का दर्द । कसि करि राखी मिसरहू मुख आई मुसुकानि । मुख आई