पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग ५.pdf/५८४

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रंजनी २०७५ रंजनी-संज्ञा स्त्री० [सं०] (1) ऋषम स्वर की तीन श्रुतियों में | रंता*-वि० [सं० रत ] अनुरक्त । लगा हुआ। ज०-(क) से दूसरी श्रुति (संगीत) । (२) नीली वृक्ष । (३) मजीठ। मुनि मानस रता जगत निर्माता आदि न अंत न जाहि।- (१) हलदी। (५) पर्पटी । (६) नागवल्ली। (७) अतुका केशव । (ख) मुनिगण प्रतिपालक रिपुकुल घालक बालक ते था पहाडी नाम की लता । रणरंता:-केशव । रंजनीपुष्प-संशा पुं० [सं०] एक प्रकार का करंज या कंजा। रंतिदेव-संज्ञा पुं० [सं०] (1) पुराणानुसार एक बड़े दानी राजा पूतिकरंज। जिन्होंने बहुत अधिक यज्ञ किए थे। एक बार सब कुछ दे रंजनीय-वि० [सं०] (1) जो रेंगने के योग्य हो। (२) जो डालने पर इन्हें ४८ दिनों तक पीने को जल भी न मिला । चित्त प्रसन्न कर सके । आनंद दे सकनेवाला। उनचास दिन ये कुछ खाने पीने का आयोजन कर रहे रंजा-संशा स्त्री० [देश॰] एक प्रकार की मछली जिसे उलधी भी थे कि क्रम से एक ब्राह्मण, एक शूद्र और कुत्ते को लिए हुए एक अतिथि आ पहुँचे । सय सामान उन्हीं के आतिथ्य में रंजित-वि० [सं०] (1) जिस पर रंग चढ़ा या लगा हो। समाप्त हो गया; केवल जल बच रहा । उसे पीने के लिए रंगा हुआ । उ.-जित अंजन कंज बिलोचन । भ्राजत ज्यों ही इन्होंने हाथ उठाया कि एक प्यासा चांडाल आ भाल तिलक गोरोचन । -तुलसी। गया और पीने के लिए जल मांगने लगा । राजा ने वह (२) आनंदित । प्रसन्न । (३) प्रेम में पड़ा हुआ । अनुरक्त। जल भी दे दिया। अंत में भगवान ने प्रसन्न होकर इन्हें रंजिश-संशा स्त्री० [फा०] (१) रज होने का भाव । (२) मन मोक्ष दिया । (२) विष्णु । (३) कुत्ता। मुटाव । अनबन । (३) वैमनस्य । शत्रता। | रतिनदी-संज्ञा स्त्री० [सं०] चंबल नदी। रंजीदगी-संज्ञा स्त्री॰ [फा०] (१) रंजीदा होने का भाव । (२) रंतु-संशा स्त्री० [सं०] (१) सड़क (२) नदी । रंजिश। रंद-संज्ञा पुं० [सं० रंध ] (१) बड़ी इमारतों की दीवारों के वेछेद रंजीदा-वि० [फा०] (१) जिसे रंज हो। दुःखित । (२) नाराज़ ।। जो रोशनी और हवा आने के लिए रखे जाते हैं । रोशन- अप्रसन्न । असंतुष्ट । दान । (२) किले की दीवारों का वह मोखा जिसमें से रंड-वि० [सं०] (1) धूर्त । चालाक । (२) विकल । बेचैन । बाहर की ओर वंतूक वा तोप चलाई जाती है। मार । रंडक-संज्ञा पुं० [सं० ] वह पेड़ जिसमें फल न आते हों। उ०-क्या रेनी खंदक रंद बना क्या कोट कंगूरा अनमोला। रंडा-वि० [सं०] रॉड़। विधवा । बेवा । क्या बुर्ज रहकला तोप फिला क्या शीशा दारू और गंडापा-संज्ञा पुं० [हिं० रॉड-+-आपा (प्रत्य॰)] विधवा की दशा। गोला ।-नज़ीर । वैधव्य । बेवापन। रंदना-क्रि० स० [हिं० रंदा+ना (प्रत्य०)] रंदे से छीलकर लकड़ी रंडाश्रमी-संश पुं० [सं० रंडाश्रमिन् ] वह जो ४८ वर्ष की अवस्था की सतह चिकनी करना ।दा फेरना या चलाना । के उपरांत रडुआ हुआ हो। ४८ वर्ष की उम्र के बाद रंदा-संज्ञा पुं० [सं० रदन-काटना, चीरना ] बढ़ई का एक जिसकी स्त्री मरे। औज़ार जिसमे वह लकड़ी की सतह छीलकर बराबर और रंडी-संज्ञा स्त्री० [सं० रंडा ] नाचने-गाने और धन लेकर संभोग चिकनी करता है । इसमें एक चौपहल लंबी और चिकनी __ करनेवाली स्त्री । वेश्या । कसबी। सतहवाली लकड़ी के बीच में एक छोटा लंबा छेद होता है: यौ०-रडीवाज़ । रडीयाज़ी । रंडी-मुंडी। जिसमें एक तेज धारवाला फल जड़ा रहता है। इसे हाथ मुहा०-रंटी रखना=किसी रंडी को संभोग आदि के लिए अपने में लेकर किसी लकड़ी पर बार वार रगड़ने या चलाने से पास रखना। उसके ऊपर से उभरी हुई सतह उतरने लगती है और मोदी रंडीबाज़-संशा पुं० [हिं० रंडी+फा० वाज़ ] वह जो रंडियों से देर में लकड़ी की सतह चिकनी हो जाती है। । संभोग करता हो। वेश्यागामी। रंधक-संज्ञा पुं० [सं०] (1) रसोई बनानेवाला । रसोइया । (२) रंडीबाज़ी-संज्ञा स्त्री० [हिं० रंडी+फा बाजी ] रंटी के साथ नष्ट करनेवाला । नाशक । __ गमन करना । वेश्यागमन । रंधन-संज्ञा पुं० [सं०] (1) रसोई बनाने की क्रिया । पाक रहवा-संज्ञा पुं० [हिं० रॉब+उआ (प्रत्य॰) 1 यह पुरुष करना । धिना । (२) नष्ट करना। जिसकी स्त्री मर गई हो। रंधित-वि० [सं०] (1) पकाया हुआ। रांधा हुआ। (२) नष्ट। रँडोगा-संज्ञा पुं० [हिं० रॉब+ओरा (प्रत्य॰)] [ सी. रडोरी] | रंध्र-संशा पुं० [सं०] (1) छेद । सूराख । वह पुरुष जिसकी स्त्री भर गई हो।दुवा । यौ०-ब्रह्मरंध्र। रंति-संज्ञा स्त्री० [सं०] (१) केलि । कीचा । (२) विराम। ! (२) योनि | भग। (३) दोष । छिद्र।