पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/१०८

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सतर' ४६२६ सताग शतद्रु नदी। पतिव्रता । । २ पक्ति । अवली। कतार । सतल-वि० [स०] १ तल या अाधारयुक्त । २ पेंदेवाला । जिसमे सतर-वि० १ टेढा। वक्र । उ०-रमन कटी हमि रमनि सो रति पेंदा हो (को०] । विपरीत विलास । चितई करि लोचन सतर सगरव मलज सतलज -सहा स्त्री० [सं० शनद्रु] पजाव की नदियो मे से एक । सहाम । - बिहारी (शब्द॰) । २ कुपित । क्रुद्ध । उ०—(क) कान्हहू पर सतर भौहें महरि मनहि विचारु । -तुलसी ग्र० सतलडा-वि० [हिं० सात+लड] [वि॰ स्त्री मतलडी। जिसमे मात पृ० ४३५ । (ख) सुनह श्याम तुमहूँ सरि नाही ऐसे गए विलाइ । लड हो । जैसे,-सतलडा हार । हम सो सतर होत सूज प्रभु कमल देहु अव जाइ। -सूर सतलड़ो, सतलरी-पमा स्त्री० [हिं० सान + लडी] गले मे पहनने की (शब्द०)। सात लडिया की माला या हार । सतर-सज्ञा सी०, पुं० [अ०] १ मनुष्य का वह अग जो ढका रखा सतवतो-वि० स्त्री० [हिं० मत्य +वती (प्रत्य॰)] मतवाली। सती। जाता है और जिसके न ढके रहने पर उसे लज्जा आती है। गुह्य इद्रिय। सतवर्ग-सा पुं० [फा० सदवर्ग] दे० 'मदवर्ग' । मुहा०-वेसतर करना = (१) नगा करना । विवस्त्र करना । (२) बेइज्जत करना। सतसग -सक्षा पुं० [सं० सत्सङ्ग] दे० 'सत्सग' । उ०-विनु मतसग विवेक न होई।-मानस, १।३ । २ प्रोट । ग्राड । परदा । ३ छिपाना । गोपन करना। यौ०-सतरपोश = जिससे तन ढाँका जाय। सतरपोशी = शरीर सतसगति-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [म० मत्सङ्गति] दे॰ 'मत्सग' । उ०-मठ सुधरहिं सतसगति पाई। पारस परस कुधातु मुहाई।- ढाँकना । तन ढांकना। सतरकी-सञ्ज्ञा सी० [हिं० सत्रह] वह क्रिया जो किसी की मृत्यु के सतसगो-वि० [स० सत्सङ्गिन्] दे० 'मत्सगी'। मानम, १३ । पश्चात् सत्रहवे दिन की जाती है। सत्रही। सतरहां-वि० सशा पु० [हिं० सत्तरह] दे० 'सत्तरह' । सतसइया-मया स्त्री० [स० सप्तशतिका दे० 'सतमई' । उ०- मतमइया के दोहरे ज्यो नावक के तीर। देखने में छोटे लगें सतराना-क्रि० अ० [हिं० सतर या ८० सतर्जन] १ क्रोध करना । घाव करे गभीर। कोप करना। उ०-हम ही पर सतरात कन्हाई।- सूर (शब्द०)। २ कुढना । चिढना। विगडना। उ०—(क) जु सतसई-सज्ञा स्त्री० [स० मप्तशती, प्रा० मत्तमई] १ वह ग्रथ जिसमे ज्यौ उझकि झॉपति वदन, झुकति बिहँसि सतराइ। तु त्यो मात सौ पद्य हो । सात सौ पद्यो का समूह या सग्रह । मप्तशती। गुलाल मुठी झुठी झझकावतु पिय जाइ।-विहारी (शब्द॰) । (ख) चद दुति मद भई, फद मे फँसी हौं पाय, द्वद नद ठानगी विशेप-हिंदी माहित्य मे 'मतमई' शब्द मे प्राय मात सौ दोहे रे, जोरे जुग पानि दै। सासु सतरहे, जेठ पतिनी रिसैहे, क हो समझे जाते हैं । जैसे,-विहारी की मतमई । वचन सुनहै, छाँडि गर की भुजानि दै। -देव (शब्द०)। मतमट-~-वि० [स० मप्नपष्ठि, हिं० मडमठ] २० 'मडमठ'। क्रि० प्र०-जाना । उ०-लेहु अव लेहु, तब कोऊ न मिखायो सतमल -सहा पु० [देश॰] शीशम का पेड। मान्यो, कोई सतराइ जाइ जाहि जाहि रोकिए। सतह-सज्ञा स्त्री० [१०] १ किसी वस्तु का ऊपरी भाग। बाहर या तुलसी (शब्द०)। ऊपर का फैलाव । तल । जैसे,—मेज को मतह, ममु दर की सतराहट-सच्चा स्त्री॰ [हिं० सतराना+हट (प्रत्य॰)] कोप । गुस्मा । सतह। नाराजगी। मुहा०-सतह चौरम या वरावर करना = ममतल करना। उभार सतरी -सज्ञा स्त्री० [सं० सर्पदष्ट्रा] सर्पदष्ट्रा नामक प्रोपधि । और गहर अथवा खुरदुरापन निकालना। सतरौहाँ-वि० हिं० सतराना+ोहा (प्रत्य॰)] [वि॰ स्त्री० सतरीही] २ रेखागणित के अनुसार वह विस्तार जिममे लवाई और १ कुपित ! क्रोधयुक्त। २ कोपसूचक । रिसाया हुआ सा । उ०- चौडाई हो, पर मोटाई न हो । ३ जमीन की फर्श या छन । सकुचि न रहिए स्याम सुनि ये सतरीहै बैन । देत रचौहैं चित सतहत्तर'--वि० [स० सप्तसप्नति, पा० सत्चसत्तति, प्रा. सत्तहत्तरि] कहे नेह नचाहै नैन । -विहारी (शब्द०)। सत्तर और सात । जो गिनती मे तीन कम अस्सी हो। सतर्क-वि० [म०] १ तर्कयुक्त । युक्ति से पुष्ट । दलील के साथ । सतहत्तर--सबा पु० सत्तर से मात अधिक की सख्या या अक जो इस २ जो विवेकशील हो (को०)। ३ सावधान । होशियार । प्रकार लिखा जाता है--७७ । सचेत । खबरदार। सतहत्तरवॉ-वि० [हिं० सतहत्तर+वा (प्रत्य॰)] जिसका स्थान सतर्कता-मचा सी० [स०] सतर्क होने का भाव। सावधानी | सतहत्तर पर हो। जो क्रम मे सतहत्तर के स्थान पर होशियारी। पडता हो। सतर्पना -क्रि० स० [स० सन्तर्पण] भली भांति तृप्त करना। सताग-सञ्ज्ञा पुं० [स० शताङ्ग] रथ । यान । उ०-कोउ तुरग सतुष्ट करना। चढि कोउ मतग चढि कोउ सताग चढि आए। अति उछाह नर- सतर्प-वि० [स०] तृपित । प्यासा। नाह भरे सव सपति विपुल लुटाए ।-रघुराज (शब्द०)।