साध्य सानक ८ प्राप्त द्वारा) ठीक करने योग्य । चिकित्स्य । उ०-साध्य बीमारी भी दो प्रकार की है। -शार्ङ्गधर०, पृ० ५६ । करने योग्य । विजेतव्य (को०)। १० प्रयोक्तव्य । जो प्रयुक्त करने योग्य हो। ११ विध्वस्त, समाप्त या नष्ट करने योग्य रिणत किया जाता है। परतु यदि पहले वही प्रमाणित करना पड़े कि धूआँ निकलता है, तो इमे साध्यसम कहेंगे । साध्यसाधन--सज्ञा पु० १ माध्य का साधन। हेतु। २ साध्य और साधन । साध्यसिद्धि-सज्ञा सी० [म०] १ साध्य अर्थात् करणीय को सिद्धि । लक्ष्य की उपलब्धि । २ निप्पत्ति [को॰] । साध्र-पज्ञा पु० [म.] एक प्रकार का माम । साध्वस-मशा पु० [सं०] १ भय । डर । २ व्याकुलता । घबराहट । ३ प्रतिभा । ४ निष्क्रियता । जडता । जाड्य (को॰) । साध्वसविप्लुत-वि० [सं०] भयभीत । भय से परिपूर्ण (को०] । साव्वाचार-सज्ञा पु० [सं०] १ साधुग्रो का सा प्राचार | २ शिष्टाचार। साध्वी'-वि० सी० [म०] १ पतिव्रता । पतिपरायणा (स्त्री) । २ शुद्ध चरित्नवाली (स्त्री) । मच्चरित्रा। साध्वी-तज्ञा स्त्री० १ दुग्ध पाषाण । २ मेदा नामक अप्टवर्गीय औपधि । सानद'--सज्ञा पु० [स० सानन्द] १ गुच्छकरज । स्निग्ध दल । २ एक प्रकार की सप्रज्ञात समाधि । ३ मगोत मे १६ प्रकार के ध्रुवको मे से एक प्रकार का ध्रुवक जिसका व्यवहार प्राय वीर रस के वर्णन के लिये होता है । सानद-क्रि० वि० अानद के साथ । आनदपूर्वक । सानद' वि० पानदयुक्त । हर्पित । प्रसन्न । सानदनी-सज्ञा स्त्री० [स० मानन्दनी] पुराणानुसार एक नदी का साव्य-सचा पु० १ एक प्रकार के गणदेवता जिनकी संख्या वारह है और जिनके नाम इस प्रकार है-मन, मता, प्राण, नर, अपान, वीर्यवान्, विनिर्भय, नय, दस, नारायण, वृष और प्रमुच । शारदीय नवरात्र मे इन गणो के पूजन का विधान है। २. देवता । ३ ज्योतिप मे विकभ आदि सत्ताइस योगो मे से इक्कीसवाँ योग जो बहुत शुभ माना जाता है । विशेष-कहते हैं कि इस योग मे जो काम किया जाता है, वह भलीमाति सिद्ध होता है। जो वालक इस योग मे जन्म लेता है वह असाध्य कार्य भी सहज मे कर लेता है और बहुत वीर, वीर, बुद्धिमान् तथा विनयशील होता है। ४ तन के अनुसार गुरु से लिए जानेवाले चार प्रकार के मनो मे से एक प्रकार का मन । ५ न्याय वैशपिक दर्शन में वह पदार्थ जिमका अनुमान किया जाय । जैसे,--पर्वत से धूनां निकलता है, अत वहाँ अग्नि हे । इसमे 'अग्नि' साध्य है। ६ कार्य करने की शक्ति । सामर्थ्य । जैसे,—यह काम हमारे साध्य के बाहर है । ७ परिपूर्णता । पूर्ति (को०) । ८ चाँदी (को०) । साध्यता-तता क्षी० [स०] १ साध्य का भाव या धर्म । साध्यत्व । शक्यता । २ रोग आदि जो चिकित्सा द्वारा साध्य हो (को०) । ३ न्याय वैशेपिक दर्शन मे वह पदार्थधर्म (साध्य का धर्म) जो अनुमान मे सद्हेतु द्वारा अनुमेय हो (को०)। साध्यपक्ष-पज्ञा पु० [स०] मुकदमे मे पूर्वपक्ष (को०] । साव्यषि-मज्ञा पुं० [स०] शिव (को०] । साव्यवसानरूपक-सज्ञा पु० [स०] रूपक के ढग का एक अलकार जिसमे अध्यवसान केवल मूर्त प्रत्यक्षीकरण के लिये होता है, आतिशय्य की व्यजना के लिये नही । किसी मत या वाद स्पष्ट करने के लिये की हुई रुप योजना। जैसे,--जल मे कुभ, कुभ मे जल है, बाहर भीतर पानी । फूटा कुभ, जल जलहि समाना, यह तत कथौ गियानी।-चिंतामणि, भा० २, पृ०६८। साध्यवसाना-सज्ञा स्त्री॰ [स०] दे० 'साध्यवसानिका' [को०] । साध्यवमानिका-सज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्यदर्पण के अनुसार एक प्रकार की लक्षणा। साध्यवपाय-वि० [म०] जिसका अर्थ ऊपर से ग्रहण किया जाय [को॰] । साव्यवान-सज्ञा पु० [स० साध्यवत] १. व्यवहार मे वह पक्ष जिस पर वाद प्रमाणित करने का भार हो। २ वह जिसमे साध्य या अनुमेय निहित हो [को०) । साध्यसम-सज्ञा पु० [सं०] न्याय मे वह हेतु जिसका साधन साध्य की भाँति करना पडे । जैसे,—पर्वत से धूनां निकलता है, अत वहाँ अग्नि है । इसमे 'पर्वत' पक्ष है, 'धूआँ' हेतु है और 'अग्नि' साध्य है । धुएं को सहायता से अग्नि का होना प्रमा- नाम। -सज्ञा सानदा-सज्ञा सी० [स० सानन्दा] लक्ष्मी का एक स्प (को०] । सानदाश्रु-सज्ञा पु० [स० सानन्दाच] आनद के आँसू । आनदानुभूति से उत्पन्न असू [को०] । सानदुरी पु० [स० सानन्दुरी] पुराणानुसार एक तीर्थ का नाम। सानदूर--सञ्चा पु० [म० सानन्दूर] वाराहपुराण मे उल्लिखित एक तीर्थ विशेष किो०)। सान'-संज्ञा पु० [म० शाण, प्रा. सान, तुल० फा० सान] वह पत्थर की चक्की जिसपर अस्त्रादि तेज किए जाते है। शारण । कुरड । उ०—तेज के प्रताप गात कच्छहू लखात नीको दीपत चढायो सान हीरा जिमी छीनो है।-शकुतला०, पृ० ११०। महा०-सान चढाना, सान देना = धार तीक्ष्ण करना । धार तेज करना | सान धरना = अस्त्र तेज करना । चोखा करना । सान--सज्ञा स्त्री० [अ० शान] दे० 'शान' ।-उ० के सुलतान की सान रहै के हमीर हठी की रहै हठ गाढी। हम्मीर०, पृ० १६ । सानक--वि० [अ०] समान । तुल्य । उ०--जिनके अगे चान सूरज भीक के सानक हैं दो। ऐसे ऐसे आफताबो को उठा लाती हूँ मैं ।-दक्खिनी०, पृ० २६५।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२४६
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