पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२७९

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साहूकारा' ५०९९ सिंगारमेज साहूकारा--वि० साहकारो का । जैसे,—साहूकारा व्यवहार या व्याज । सिंगरफ--मचा पु० [फा० शिंगरफ] इंगुर । साहूकारी-मज्ञा स्त्री० [हिं० साहूकार + ई (प्रत्य॰)] १ साहूकार होने सिंगरफो-वि० [फा० शिगरफी] इंगुर का । ईगुर से बना हुआ । का भाव । साहूकारपन। २ साहूकार का काम। साहूकारा। सिंगरी--सज्ञा स्त्री० [हिं० सीग] एक प्रकार की मछली जिमके सिर पर महाजनी (को०)। सीग से निकले होते हैं। साहेब--सञ्ज्ञा पु० [अ० माहिव] दे० 'साहब' । सिंगरीर-सञ्ज्ञा पुं० [स० शृडगवर] प्रयाग के पश्चिमोत्तर नौ दस साहे--सज्ञा स्त्री० [हिं० बाँह] भुजदड । वाजू। उ०-सकल कोस पर एक स्थान जो प्राचीन शृगवेरपुर माना जाता है । यहाँ भुअन मगल मदिर के द्वार विसाल सुहाई साहै।--तुलसी निषादराज गुह की राजधानी थी। उ०-सो जामिनि सिंगरीर (शब्द०)। गंवाई।--मानस, २११५१ । साहे '-अव्य० [हिं० सामुहे] सामने । सम्मुख । सिंगल'--मज्ञा स्त्री॰ [देश॰] एक प्रकार की बडी मछली जो भारत और साह्य--सज्ञा पु० [म०] १ सयोजन। मेल । साथ । २ सहायता। वरमा की नदियो मे पाई जाती है। यह छह फुट तक लवी मदद [को०] । होती है। साह्यकृत्--सज्ञा पुं० [स०] साथीको०)। सिंगल:--सचा पु० [अ० सिगनल] दे० 'सिगनल' । साह्न--वि० [स०] १ दिन से सबद्ध । दिन सहित । दिनयुक्त । २. सिंगल-वि० [अ० सिंगिल] एक । दे० 'सिगिल' । जैसे,--सिंगल कप दिन पूरा करनेवाला । दिवस समाप्त करनेवाला [को०] । (डवल = दो अर्थात् भरा हुआ पूर्ण और सिगल = एक अर्थात् साह्व--वि० [म०] नामवाला (को०] । प्राधा)। साह्वय--सज्ञा पु० [स०] १ जानवरो की लडाई कराकर जुआ सिंगार--सज्ञा पु० [हिं० सोग] फूंककर वजाया जानेवाला सीग या खेलना। २ पशुप्रो के लडाने के लिये योजित करना। लोहे का बना एक बाजा । तुरही। रणामगा। सिर, लिउँg:--प्रत्य० [अप० सिउँ ( = सम)] दे० 'त्यो' । उ०--- सिंगा--सज्ञा स्त्री॰ [देशी] फली । छोमी । फलियाँ । रतन जनम अपनो त हास्यो गोविंद गत नहिं जानी। निमिष सिंगार, सिँगार--सज्ञा पु० [स० शृङगार, प्रा० सिंगार] १. न लीन भयो चरनन सिंउ विरथा अउध सिरानी।--तेगवहादुर सजावट। सज्जा। वनाव। २ शोभा । ३ शृगार रस। (शब्द०)। उ-ताही ते सिंगार रस बरनि कह्यो कवि देव । जाको है सिकना, सिकना-क्रि० अ० [स० श्रृत ( = पका हुआ) + करण, हिं० हरि देवता सकल देव अधिदेव ।-देव (शब्द॰) । सेंकना] आँच पर गरम होना या पकना । सेंका जाना। जैसे,-- सिंगारदान-मज्ञा पु० [हिं० सिंगार + म० अाधान या फा० दान रोटी सिंकना। (प्रत्य॰)] वह पान या छोटा सदूक जिसमे शीशा, कधी आदि सिंकली-सज्ञा श्री [म० शृडखला, हिं० माकल] करधनी । मेखला । शृगार की सामग्री रखी जाती है। प्रसाधन की सामग्री रखने कमर मे पहनने की जजीर । उ०--खुटी सिंकली सूता एकावटी का सदूक । चुलि वलया मेपला त्रिका |--वर्ण०, पृ० ४। सिंगारना, सिंगारना-क्रि० स० [हिं० सिंगार+ना (प्रत्य॰)] सिंकोना-सज्ञा पुं० [अ०] कुनैन का पेड । वस्त्र, आभूपण, अगराग आदि से शरीर सुसज्जित करना । सजाना। मॅवारना । उ०-(क) मुरभी वृपभ सिगारि बहुबिधि सिखला--सज्ञा स्त्री० [स० शृङखला, हिं० साँकल] १ दरवाजा बद हरदी तेल लगाई। —सूर (शब्द०)। (ख) कटे कुड कुडल सिँगारे करने की सिकडी । साँकल। २ वधन । घेरा। रोक । प्रतिवध। अर्गला । उ०-तोरि मिखला गेह की हो लोक लाज भय खोय गड पु डन पै कटि मै भुसुड सुड दडन की मडनी।-गि० दास (शब्द०)। 'हरीचद' हरि सो मिली होनी होय सो होय । -भारतेंदु ग्र०, सिंगारपटार-सज्ञा पु० [म० शृङगार+प्रस्तार] अच्छी तरह किया भा०२, पृ. ३७४। हुआ शृगार। शृगार। सिंगार । उ०-माबुन मल मल कर सिंग--शा पु० [म० शृङ्ग] दे० 'सोग । हाथ मुंह धोया फिर इत्र पाउटर लगाकर सिंगारपटार किया। सिंगा--वि० [देशो] कृश । दुर्बल।-देशी० ८ २८ । --कठहार, पृ०६८। सिंगडा --संज्ञा पु० [स० शृङग + हिं० डा (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० सिंगारभोग-सा पु० [म० शृडगार + भोग] शृगारकालीन भोग । सिंगडो] सोग का बना हुआ वारुद रखने का एक प्रकार का वह भोग या नैवेद्य जो देवविग्रह के स्नान एव धूप भारती के वरतन। उ०--तन वदूक सुमन का सिंगडा ज्ञान का गज उपरात तथा शृगार प्रारती के पूर्व अर्पण किया जाता है । ठहकाई ।--कबीर० श०, भा० १, पृ० २७ । बालभोग। कलेवा । उ०-फेरि रसोई मे जाड, ममै भए भोग सिंगरा। - सज्ञा पुं० [हिं० सीग+ रा (प्रत्य॰)] दे० 'सिंगडा' उ०- सराइ श्रीठाकुरजी की मगला प्राति करि, सिगार करि सिंगार- (क) तन बदूक सुमति के सिंगरा ज्ञान के गज ठहकाई। भोग धरतें।-दो सो बावन०, भा० १, पृ १०१। --पलटू०, भा० ३, पृ० ४०। (ख) रजक दानी, सिंगरा सिंगारमेंज-सज्ञा खी० [स० शृङगार+फा० मेज] एक प्रकार की तूलि पलीता दानी।--प्रेमघन०, भा० १, पृ० १३ । मेज जिसपर दर्पण लगा रहता हे और शृगार की सामग्री सजी