के सीग। मिगारहाट ६००० सिघाडा रहती है। इसके सामने बैठकर लोग वाल मॅवारते और वस्त्र विशेप-यह मछ नी बरसाती पानी मे अधिकता से होती है । इसके आभूपण आदि पहनते है। काटने या सा रहाने से एक प्रकार का विप चढता है यह रिंगारहाट- ना स्त्री० [हिं० सिंगार + हाट (= बाजार)] १ एक फुट के लगभग लवी होती हे और खाने के योग्य नहीं होती। मंदय का वाजार । वेण्याओ के रहने का स्थान। चकला। २ सोग की बनी नली जिससे घूमनेवाले देहाती जर्राह शरीर का २ वह बाजार जहाँ शृगार या प्रसाधन की वस्तुएँ विकती हो। रक्त चूसकर निकालते है। सिंगारहार- सज्ञा पुं० [म० हारशृङगार] हरसिंगार नामक फूल । क्रि० प्र०-लगाना। परजाता। उ०--नागेसर सदवरग नेवारी। श्री सिंगारहार सिंग मोहरा-सज्ञा पु० [हिं० सिंगी + मुहरा] सिगिया नामक विप । फुलवारी । --जायसी (शब्द॰) । सिंगुल-मज्ञा पु० [हि० सीग + उल (प्रत्य)] सोग । उ०-- सिंगारिया-वि॰ [म० शृदगार+हि० मिगार + इया (प्रत्य॰)] किसी पीत वरण अारक्त खुर सिर सिंगुल सुकुमार। कमलासन के देवमूर्ति का शृगार करनेवाला, पुजारी । अग्र अरि गो गोरुप पुकार ।--प० रासो, पृ०७ । सिंगारी, सिँगारी--वि० पु० [म० शृङगारिन्, प्रा० सिंगारि, हिं० सिंगौटो, सिंगौटोर--सज्ञा स्त्री० [हिं० सीग + प्रौटी (प्रत्य॰)] १ सिंगार + ई (प्रत्य॰)] १ शृगार करनेवाला । शोभित करने सोग का आकार। २ बैल के सीग पर पहनाने का एक वाला । सजानेवाला। उ०--समर बिहारी सुर सम वलधारी आभूपरण। ३ सीग का बना हुआ घोटना ४ तेल आदि घरि मल्लजुद्वकारी श्री सिंगारी भट भेरु के ।-गोपाल (शब्द०)। रखने के लिये सीग का पान । ५ जगल मे मरे हुए जानवरो २ सिंगाग्यिा। शृगार का विशेपज्ञ । रामलीला, नाटक आदि मे पात्रो को सजानेवाला। उ० आवत दूर दूर सौ सिच्छक सिंगौटो, सिंगौटो'- मशा स्त्री० [हिं० मिगार + प्रोटी] सिंदूर, कधी गुनी चिंगारी ।-प्रेमघन०, भा० १, पृ। ३० । आदि रखने की स्त्रियो की पिटारी। सिंगाला- ज्ञा पु० [देश॰] एक प्रकार का पहाडी बकरा जो कुमायूं सिंघg:-सज्ञा पु० [स० सिंह, प्रा० सिंघ] १ दे० 'सिंह' । २ शख । से नेपाल तक पाया जाता है। ३ राजा। राव । ४ शूर। वीर। उ०—सिंघ सूर को कहत सिंगाला - वि० [हिं० सोग + आला (प्रत्य॰)] [वि॰ स्त्री॰ सिंगाली] कवि वहुरि सख को सिंघ । सिंघ राव औ सिंघ वपु धरो भेष सीगवाला । जैसे,-गाय, बैल । नरसिंघ।--अनेकार्थ०, पृ० १६३ । सिंगासना-सज्ञा पु० [म० सिंहासन, प्रा. सिंघासन] दे० 'सिंहासन' । सिंघए--यज्ञा पु० [सं०] दे० 'सिंहाण' [को०] । सिंगिया--मज्ञा पुं० [म० शृडगिक एक प्रसिद्ध स्थावर विष । सिंघपोरि --सज्ञा स्त्री० [सं० सिंह + हिं० पौर] राजा के प्रासाद या विशेप- इमका पौधा अदरक या हल्दी का सा होता है और सिक्किम की अोर नदियो के किनारे को कीचडवाली जमीन मे मदिर का मुख्य द्वार। सिंहपौर । उ० सो सुनिक श्री रुक्मिनी जी आदि सव पटरानी निज सखी सहचारिन को सग ले के उगता है। इसकी जड ही विप होती है, जो सूखने पर सोग के मोरहहू सिंगार किए अपने अपने मदिर ते निकसी। सो सिंघ- आकार की दिखाई पड़ती है। लोगो का विश्वाम है कि यह विष पोरि आई --दो सौ बावन०, भा॰ २, पृ०७। यदि गाय की मीग मे बांध दिया जाय, तो उसका दूव रक्त के समान लाल हो जाय । यह कुछ आयुर्वेदिक दवाओं में प्रयुक्त सिंघन-सज्ञा पुं० [स० सिंहल] दे० 'सिहल' । होता है। सिंघली- वि० [सं० सिंहल + ई] दे० 'सिंहली' । सिंगिया--मज्ञा स्त्री० [स० शृडिगका, प्रा. सिंगिया] पिचकारी। सिंघा-िमज्ञा पु० [स० शृङगक, हिं० सिंगा] दे० 'सिंगा'। फुहारा किो। सिंघाडा, सिंघाणा सज्ञा पु० [स० शृडगाटक] १ पानी मे फैलने- सिंगिल-वि० [अ] १ अविवाहित । एकाकी २ एक मात्र । इक- वाली एक लता जिसके तिकोने फल खाए जाते है । पानी फल । हरा । जैसे,—सिगिल लाइन मिगिल रीड बाजा । विशेष--यह भारतवर्ष के प्रत्येक प्रात मे तालो और जलाशयो मे सिंगो-सज्ञा पु० [हिं० सोग] १ मोग का बना हुमा फूककर वजाया गेपकर लगाया जाता है। इसकी जडे पानी के भीतर दूर तक जानेवाला एक प्रकार का बाजा । तुरहो। फैलती है। इसके लिये पानी के भीतर कीचड का होना विशेप-से शिकारी लोग वुत्तो को शिकार का पता देने के लिये आवश्यक है, कंकरीली या बलुई जमीन मे यह नही फैल सकता। इसके पत्ते तीन अगल चौडे कटावदार होते है। जिनके नीचे का २ सोग का बाजा जिसे योगो लोग फूंककर बजाते हैं। उ०- भाग ललाई लिए होता है। फूल मफेद रंग के होते है । फल तिकोने होते हे जिनकी दो नोके काटे या सीग की तरह निकली मिंगो नाद न वाजही किन गए सो जोगी।-दाटू (शब्द॰) । होती हैं । बीच का भाग खुरदरा होता है। छिलका मोटा पर क्रि०प्र०-फूंकना -बजाना। मुलायम होता है जिसके भीतर मफेद गूदा या गिरी होती है। ३ घोडो का एक बुग लक्षण । ये फल हरे खाए जाते हैं। सूखे फ्लो की गिरी का आटा भी सिंगो-तशाली०१ एक प्रकार की मछली। वनता है जो व्रत के दिन पलाहार के रूप मे लोग खाते हैं। बजाते हैं।
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