पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२८४

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सिंह सिधुसागर सिधुसागर -सज्ञा पु० [स० सिन्धुमागर] सिंधु नद तथा सागर के बीच सिमृति -संज्ञा स्त्री० [स० स्मृति] स्मृति ग्रंथ । उ० --गुर मति वेद का देश [को०] । सिमृति अभ्यास । -प्राण०, पृ० २२८ । सिधुसुत-मज्ञा पु० [स० सिन्धुसुत] जलधर नामक राक्षस जिसे शिवजी सिंसप सा पु० [सं० शिशपा] दे० 'शिशपा' । ने मारा था। उ०---सिंधुसुत गर्व गिरि वन गौरीस भव दक्ष मख अखिल विध्वसकर्ता।--तुलसी (शब्द०)। सिंसपा-सज्ञा सी० [स० शिशपा] दे॰ 'शिंशपा' । सिधुमुता-मज्ञा स्त्री॰ [म० मिन्धुसुता] १ लक्ष्मी। २ सीप । सिसिपा-संज्ञा स्त्री० [स० शिशपा] दे० 'शिशपा' । उ०-मरो सिमिपा सिधुसुतासुत-मज्ञा स्त्री० [स० सिन्धुसुतासुत] सिंधुमुता, सीप का पुत्र सीकम की शोभा शुभ झलकी ।-श्यामा०, प० ३६ । अर्थात् मोती। उ०-- सिंधुसुतासुत ता रिपु गमनी सुन मेरी तू सिसुपा-सज्ञा स्त्री॰ [स० शिशपा] १ एक वृक्ष । शिशपा। सीसम । वात।-मूर (शब्द०)। उ०-जहँ सिसुपा पुनीत तरु रघुवर किय वित्राम । -मानम, सिंधुसौवीर--सज्ञा पुं० [स० सिन्धुसौवीर] सिंधुनद के आस पास २।१६८ । २ अशोक (को०)। बसनेवाली जाति [को०)। सिह-सज्ञा पु० [सं०] [स्त्री सिंहनी] १ बिल्ली की जाति का सबसे सिधूत्थ-सज्ञा पु० [स० सिन्धूत्थ] १ चद्रमा। २ सेंधा नमक किो०)। बलवान् पराक्रमी और भव्य जगली जतु जिसके नर वर्ग की सिधूद्भव--पञ्चा पु० [स० मिन्धूद्भव] सेधा नमक किो०] । गरदन पर वडे वडे बाल या केसर होते है । शेर बवर । सिधूपल--सज्ञा पुं॰ [स० सिन्धूपल] सेंधा नमक (को॰) । विशेष-यह जतु अव ससार मे बहुत कम स्थानो मे रह गया है। सिधूरा-मशा पुं० [स० मिन्धुर] सपूर्ण जाति का एक राग जो हिंडोल भारतवर्ष के जगलो मे किसी समय सर्वत्र सिंह पाए जाते थे, राग का पुत्र माना जाता है। पर अब कही नही रह गए है । केवल गुजरात या काठियावाड विशेष--यह वीर रस का राग है। इममे ऋषभ और निपाद स्वर की ओर कभी कभी दिखाई पड़ जाते है। उत्तरी भारत में कोमल लगते है। इसके गाने का समय दिन मे ११ दड से १५ अतिम सिंह सन् १८३६ मे दिखाई पड़ा था। आजकल सिंह दड तक है। केवल अफ्रिका के जगलो मे मिलते है। इस जतु का पिछला सिधूरी- 1--मज्ञा स्त्री॰ [स० सिन्धुर + हिं० ई] एक रागिनी जो हिंडोल भाग पतला होता है, पर सामने का भाग अत्यत भव्य और राग की पुत्रवधू मानी जाती है। विशाल होता है। इसकी आकृति से विलक्षण तेज टपकता भिघोरा, सिंघोरा-सज्ञा पु० [हिं० सिंदूर + प्रोरा (प्रत्य॰)] सिंदूर है और इसकी गरज वादल की तरह गूजती है, इसी से रखने का लकडी का पात्र जो कई प्रकार का बनता है। उ०-- सिंह का गर्जन प्रसिद्ध है। देखने मे यह वाघ की अपेक्षा शात गृहि ते निकरी सती होन को देखन को जग दौरा । अब तो जरे मरे वनि पाई लीन्हा हाथ सिंधोरा ।-कबीर (शब्द०)। और गभीर दिखाई पडता है और जल्दी क्रोध नहीं करता। सिंघोरिया-मज्ञा स्त्री० [हिं० सिंदूर + इया (प्रत्य०) १ सिंदूर रखने रग इसका ऊँट के रंग का सा और सादा होता है। इसके की छोटी डिविया। दे० 'सिंदूरिया' । शरीर पर चित्तियां आदि नही होती। मुंह व्याघ्र की अपेक्षा सिघोरी, सिंघोरी--सज्ञा स्त्री० [हिं० सिंदूर] मिदूर रखने की काठ कुछ लबोतरा होता है, विलकुल गोल नही होता। पूछ का की डिविया। दे० 'मिधोरा' । उ०- काहू हाथ चदन के खोरी। आकार भी कुछ भिन्न होता है। यह पतली होती है और उसके कोइ सेधूर कोइ गहे सिंधोगे।-जायसी (शब्द॰) । छोर पर बालो का गुच्छा सा होता है। सारे धड की सिपा-सज्ञा स्त्री॰ [स० शम्पा] विद्युत् । विजली। उ०-खुरतालु के अपेक्षा इसका सिर और चेहरा बहुत बडा होता है जो केसर भमके मत सिपा के मिलाव।--रघु० रू०, पृ० २५० । या वालो के कारण और भी भव्य दिखाई पड़ता है। कवि लोग सिपी संज्ञा पु० [स० सीविन् (= सीनेवाला, दर्जी)] सीवक । सदा से वीर या पराक्रमी पुरुप की उपमा सिंह से देते आए छोपी। दर्जी । उ०-मन मेरी सुई तन मेरो धागा। खेचर जी हैं। यह जगल का राजा माना जाता है। के चरन पर नामा सिपी लागा।-दक्खिनी०, पृ०१८ । पा.-मृगराज । मृगेंद्र । केसरी। पचानन । हरि । पचास्य । सिव--सज्ञा पुं० [स० शिम्ब] दे० 'शिव' । २. ज्योतिप मे मेप आदि वारह राशियो मे से पांचवी राशि । मिवा-सज्ञा खी० [स० सिम्बा] १ शिवी धान । शमी धान्य । २ नखी विशेष--इस राशि के अतर्गत मघा, पूर्वा फाल्गुनी और उत्तरा नामक गध द्रव्य । हट्टविलासिनी। ३ सोठ । ४ फली। छोमी फाल्गुनी के प्रथम पाद पडते है। इसका देवता सिंह और वर्ण (को०) । ५ सेम (को०)। पीतधूम्र माना गया है। फलित ज्योतिप मे यह राशि पित्त सिबिजा-मज्ञा स्त्री० [स० सिम्विजा] द्विदल जातीय अन्न (को०)। प्रकृति की, पूर्व दिशा की स्वामिनी, क्रूर और शब्दवाली कही सिवी--सज्ञा स्त्री० [सं० सिम्वी] १ छीमी। फली। २ सेम । निष्पावी। गई है। इस राशि मे उत्पन्न होनेवाला मनुष्य क्रोधी, तेज चलने- ३ वन मूग। वाला, बहुत बोलनेवाला, हँसमुख, चचल और मत्स्यप्रिय सिभ-सञ्ज्ञा पुं० [म० शम्भु] दे० 'सिंभु । बतलाया गया है। सिभालू-सशा पु० [सं० सम्भालू] सिंदुवार । निगुटी । ३ वीरता या श्रेष्ठतावाचक शब्द । जैसे,-पुरुप सिंह। ४ सिभु-सञ्ज्ञा पु० [स० शम्भ] शिव। शकर। उ०--धरयो तन छप्पय छद का सोलहवां भेद जिसमे ५५ गुरु, ४२ लघु कुल वस्त्र सुकोर कुमार। मँडी जनु सिंभु मनम्मथ रार।-पृ० ६७ वर्ण या १५२ माताएँ होती हैं । ५ वास्तुविद्या मे प्रासाद रा०, १४१६१। का एक भेद जिसमे सिंह की प्रतिमा से भूपित बारह कोने होते 1