पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२८८

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सिंहासनत्रय ६००८ सिकदेरा सिहासनत्रय-सज्ञा पु० [सं०] ज्योतिष का एक चक्र (को०] । सिहोदरी-वि० सी० [सं०] सिंह के समान पतली कमरवाली। उ०- सिहासनच्युत, सिहासनभ्रप्ट-वि० [सं०] सिंहासन से हटाया हुआ। सकल सिंगार करि सोहै ग्राजु सिंहोदरी सिंहासन बैठी सिंह- राज्यच्युत किो०)। वाहिनी भवानी मी । -देव० (शब्द०)। सिहासनयुद्ध, सिहासनरए-मज्ञा पुं० [०] राज्यसिंहासन की प्राप्ति सिहोद्धता -सश' सी० [सं०] दे० 'सिहोन्नता' [को॰] । के लिये होनेवाला सग्राम । सिहोन्नता- सशा स्त्री॰ [स०] वसततिलका वृत्त का दूमरा नाम । उ०- सिंहासनस्थ--वि० [सं०] [वि॰ स्त्री० सिहासनस्या] सिंहासन पर इमको अन्य सज्ञाएँ उद्धर्पिणी, सिहोन्नता, वसततिलक प्रभृति स्थित । सिंहासन पर आसीन [को॰] । छद०, पृ० १६५। सिहास्त्र - संज्ञा पु० [सं०] एक प्राचीन अस्त्र [को०)। सिअनि-सशा मी० [म० सीवन, प्रा० सीवण, हिं० सीवन, मीग्रन] सिहास्य- सज्ञा पुं० [सं०] १ वासक । अडूमा। २ कोविदार । सिलाई। उ० -तुम्हरी कृपा मुलभ सोउ मोरे। सिग्रनि कचनार । ३ एक प्रकार की बडी मछली। ४ हाथो की एक सोहावनि टाट पटोरें।-मानम, १।१४ । विशिष्ट मुद्रा (को०)। सिर-वि० [स० शीतल] दे० 'मियरा' । उ०—मेलेसि चदन मकु सिहास्या-सज्ञा स्त्री॰ [स०] अडूसा (को० ॥ खिनु जागा। अधिको मूत सिपर तन लागा।-जायमी ग्र० (गुप्त), पृ० २५२। सिहिका-सज्ञा स्त्री० [स०] १ एक राक्षसी जो राहु की माता थी। सिमरा-वि० [स० शीतल, प्रा० सीअड] ठटा । शीतल । उ०-- उ०--जलधि लघन सिंह सिंहिका मद मथन, रजनिचर नगर सिअरे बदन सूखि गए कमे। परसत तुहिन ताम रस जैसे। उत्पात केतू ।--तुलसी (शब्द०)। (ख) ललित श्रीगोपाल लोचन स्याम शोभा दून । मनु मयकहि अक दीन्ही सिंहिका के -तुलसी (शब्द०)। सिरा--सज्ञा पुं॰ [सं० छाया, फा० मायह] छाह। उ०-सिरसि सून ।--सूर (शब्द०)। टेपारो लाल नीरज नयन विसाल मु दर बदन ठाट मुर तरु विशेष--यह राक्षसी दक्षिण समुद्र मे रहकर उडते हुए जीवो की सिपरे । -तुलसी (शब्द॰) । परछाई देखकर ही उनको खीचकर खाती थी। इसको लका सिरा-सशा पुं० [स० शृगाल, प्रा० मिग्राड] दे० 'मियार'। जाते समय हनुमान ने मारा था। यो०-सिंहिकाचित्तन्दन, सिंहिकातनय, सिहिकापुन, सिंहिकासुत = सियाना-कि० स० [सं० मीव] दे० 'सिलाना'। सिंहिका का पुत्र, राहु। सिश्रामग-सज्ञा पु० [सं० श्यामाडग( = काले शरीरवाला)] सुमात्रा द्वीप मे पाया जानेवाला एक प्रकार का ददर। २ शोभन छद का एक नाम । इसके प्रत्येक पद मे १४, १० के विराम से २४ मात्राएं और अत मे जगण होता है । ३ सियार-सज्ञा पुं० [स० शृगाल, प्रा. मिपाल] [सी० सिपारी] दाक्षायणी देवी का एक रूप । ४ टेढे घुटनो की कन्या जो शृगाल। गीदड। उ०-भयो चलत असगुन अति भारी। विवाह के अयोग्य कही गई है। ५ अडूसा। ६ वनभटा। रबि के पाछत फेकर सियारी।--सवल सिंह (शब्द०)। ७ कटकारी। सिउरना:-क्रि० स० [देश॰] छाजन के लिये मुट्ठो को काडियो पर विछाकर रस्सी से बांधना। सिंहिकासूनु--सज्ञा पु० [सं०] सिंहिका का पुत्र, राहु । सिहिकेय-सज्ञा पुं॰ [सं०] (सिंहिका का पुत्र) राहु । सिकजबीन-सज्ञा स्त्री० [फा० सिकजुबीन] सिरके या नीबू के रस मे सिहिनी--सज्ञा स्त्री॰ [स० सिंहनी] मादा सिंह। शेरनी। उ०- श्वान पका हुया शरवत । विशेप-यह शर्वत ठढा होता है और दवा के काम आता है। सग सिंहिनी रति अजगुत वेद विरुद्ध असुर कर आइ । गर्मी के दिनो मे ठढक के लिये लोग इसे पीते है । यह सफ्रा सूरदास प्रभु बेगि न आवहु प्राण गए कहा लहौ आइ। -सूर (शब्द॰) । २ बौद्धो के अनुसार ए क देवी (को॰) । और बलगम के लिये हितकर कहा गया है। सिकजा-सज्ञा पुं० [फा० शिकजह] दे० 'शिकजा' । सिही-सज्ञा स्त्री० [सं०] १ सिंह की मादा । शेरनी। उ०-सिंही की गोद से छोनता है शिश् कीन? 1-अपरा, पृ० १०॥ २ सिकदर--सज्ञा पु० [फा०] यूनान का एक प्रसिद्ध और प्रतापी नरेश अडसा। ३. स्नही । थूहर। ४ मुद्गपर्णी। ५ चद्रशेखर के जो मकदूनियाँ के राजा फिलिप्स (फैलकूस या फैलक्स) का पुन मत से प्रार्या का पचीसवाँ भेद । इसमे ३ गुरु और ५१ लघु और अरस्तू का शागिद था। मिस्र, ईरान, अफगानिस्तान जय होते है। ६ बृहती लता । ७ सिधा नाम का बाजा । ८ करता हुआ यह हिंदुस्तान तक पाया था और इसने तक्षशिला और सिंध का कुछ अश भी जीत लिया था। पीली कौडी।। धमनी । नस । नाडी (को०)। १० नाडी- शाक । करेमू । ११ राहु को माता सिंहिका । सिकदरा--मज्ञा पु० [फा० सिकदरा] रेल को लाइन के किनारे ऊँचे खभे पर लगा हुआ हाथ या डडा जो पाती हुई गाडी की सूचना सिंहीलता-संज्ञा स्त्री० [सं०] बैगन । भटा । देता है। सिगनल। सिहेश्वरी-सज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा । विशेष-कथा प्रसिद्ध है कि सिकदर बादशाह जब सारी दुनिया सिहोड़-सज्ञा पु० [सं० सेहुण्ड] दे॰ 'सेहुड' या 'यूहर' । जीतकर समुद्र पर भ्रमण करने गया, तव बडवानल के पास