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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/२८९

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सिकंदरी' ६००६ सिकोली सीका। पहुंचा। वही उसने जहाजियो को सावधान करने के लिये सिकलीगढ--सञ्ज्ञा पु० [हिं० सिकली + फा० गर] दे० 'शिकलीगर'। खभे के ऊपर एक हिलता हुआ हाथ लगवा दिया जो उधर जाने उ.- बढई सगतराम विसाती। सिकलीगढ कहार की पाती। वाले यात्रियो को वरावर मना करता रहता है और 'सिकदरी -गिरधरदास (शब्द०)। भुजा' कहलाता है। इसी कहानी के अनुसार लोग सिगनल सिकलीगर-सशा पु० [अ० संकल+ फा० गर] तलवार और हरी को भी 'सिकदरा' कहने लगे। आदि पर वाढ रखनेवाला । सान धरनेवाला। चमक देनेवाला। सिकदरी-वि० [फा०] सिकदर का । सिकदर सबधी। उ०-यो छबि पावत है लखौ अजन प्रॉजे नैन। सरस वाढ सिकदरी-सज्ञा स्त्री० घोडे की ठोकर किो०) । संफन धरी जनु मिकलीगर मैन ।-सनिधि (शब्द०)। सिकटा-सञ्चा पु० [देश॰] [झी० अल्पा० सिकटी] खपडे या मिट्टी सिकसोनी सझा मी० [देश॰] काक जघा । के टूटे वरतनो का छोटा टुकडा । सिकहर, सिकहरा--सज्ञा पुं० [स० शिक्य + वर] छोका। झीका। सिकटी --स्शा सी० [देश॰] छोटी ककडी या टुकडी। सिकडी--सज्ञा स्त्री० [म० शृङखला] १ किवाड की कुटी। सांकल । सिकहुती, सिकहुनी-सज्ञा स्त्री० [हिं० सीक + ौती या ग्रीली (प्रत्य॰)] जजीर । २ जजीर के आकार का सोने का गले मे पहनने का मूज, कास प्रादि की वनी छोटी डलिया। गहना। ३ करधनी। तागडी। ४ चारपाई मे लगी हुई वह सिकाकोल--सज्ञा स्त्री॰ [देश॰] दक्षिण की एक नदी। दॉवनी जो एक दूसरी मे गूंथ कर लगाई जाती है। सिकार:--सज्ञा पु० [फा० शिकार] दे० 'शिकार'। उ--(क) सिकड़ी पनवॉ - सज्ञा पु० [हिं० सिकडी+पान] गले मे पहनने की कपहिं सिकार गज तुड डर सब विधन गनपति हरय । वह सिकडी जिसके बीच मे पान सी चौकी होती है। -पृ० रा', ६६८ । (ख) खिल्लत सिकार पिय कुँअर डर पशु सिकत -सज्ञा स्त्री॰ [स० सिकता] सिकता। रेत । पीपर दल थरहरै।--पृ० रा०, ६।१०० । सिकता-सज्ञा स्त्री० [स०] १ बालू । रेत । उ०--वारि मथे घृत होइ सिकारी-वि०, सच्चा पु० [फा० शिकारी] दे० 'शिकारी'। उ०--मारत वरु सिकता ते बरु तेल। विनु हरि भजन न भव तरिम यह खोज सिकार सिकारी जे अति चातुर।-प्रेमघन०, भा० १, सिद्धात अपेल । तुलमी (शब्द०)। २ वलुई जमीन। ३ पृ०२६॥ प्रमेह का एक भेद। अश्मरी। पथरी। ४ चीनी। शर्करा । सिकिलि--सचा स्त्री० [हिं० सिकली] दे॰ 'सिकली' । उ०--गुरु के ५ लोरिणका या लोनी नामक शाक । भेद को पाइ कै सिकिलि करु ।-पलटू०, पृ० १६। यो०--सिकताप्राय - रेतीला तट । सिकतामय = १) रेतीला तट । (२) रेतीला टापू । (३) रेतीला। सिकतामेह । सिकतावम। सिकुडन--सञ्ज्ञा स्त्री० [म० सडकुचन, अथवा प्रा० सकुड, सकुडिय] सिकता सेतु = बालू का वना बाँध । १ दूर तक फैली हुई वस्तु का सिमट कर थोडे स्थान मे होना। सिकतामेह-मज्ञा पु० [स०] एक प्रकार का प्रमेह जिसमे पेशाब के साथ सकोच । आकुचन। २ वस्तु के मिमटने से पड़ा हुआ चिह्न। बालू के से करण निकलते है। बल। शिकन मिलवट । सिकतावत्म --मञ्ज्ञा पु० [म० मिकतावमन्] आँख की पलको का सिकुडना--कि० अ० [स० सड फुचन] १ दूर तक फैली वस्तु का एक रोग। सिमटकर थोडे स्थान मे होना। सुकडना। पाकुचित होना । सिकतावान् --वि० [न० सिकतावत्] रेतीला । मिकतामय (को०)। बटुरना। २ सकीर्ण होना । तग होना। ३ बल पडना। सिकतिल-सञ्चा खो० [स०] रेतीला। शिकन पड़ना। सिकतोत्तर--वि० [म०] रेतीभरा । वालुकामय। सिकतिल [को०] । स्यो० क्रि०-जाना। सिकत्तरी-सशा पु० [अ० सेक्रेटरी] किसी सम्था या सभा का मनी। सिकुरना-क्रि० अ० [हिं० मिकुडना) ३० 'सिकुडना' । सेनेटरी। सिकोड--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० सिकुडना ] दे० 'सिकुडना' । उ०-वृद्ध अनुभव सिकर---रज्ञा पु० [स० शृगाल] गीदड । सियार। को मिकोड । वृथा मुझे सात्वना मत दो।--ग्रथि, पृ०८४ । सिकर--मज्ञा स्त्री० [हिं० मीकड] जजीर । सिकडी । सिकोडना-क्रि० स० [हि० सिकुडना] १ दूर तक फैली हुई वस्तु को समेट कर थोडे स्थान मे करना । सकुचित करना । २ समेटना। सिकरवार-सज्ञा पु० [देश॰] क्षवियो की एक शाखा । उ०-वीर वटोरना । ३ सकीर्ण करना। तग करना। वडगूजर जसाउत मिकरवार, होत असवार जे करत निरवार सयो० कि०--देना। हैं।-सूदन (शब्द०)। सिकरी-मशा सी० [हिं० सिकडी] २० 'सिकडी। सिकोरनाg+-क्रि० स० [हि० सिकोडना] दे० 'सिकोडना' । उ०- सिकली--सशा स्त्री० [अ० संकल] धारदार हथियारो को मांजने और सुनि अघ नरकहु नाक सिकोरी।--तुलसी (शब्द०)। उनपर मान चढाने की क्रिया। उ०-सकल कवीरा बोलै वीरा सिकोरा सज्ञा पु० [हिं० कसोरा] दे० 'सकोरा या 'कमोरा'। अजहूँ हो हुसियारा। कह कवीर गुर सिकली दरपन हरदम करी सिकोलो--संज्ञा स्त्री॰ [देश॰] वाँस के फट्टो, काम, मूज, देत आदि की पुकारा |--कबीर (शब्द॰) । वनी डलिया। उ०-प्रसादी जल की मथनी मे झारी ठलाय, हिं० १० १०-३५