पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/३९८

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सुरीको ७०१८ सुलछ सुरौका--संज्ञा पु० [म० सुराकस्] १ स्वर्ग। २ देवमंदिर । सुलक्ष-वि० [सं० सुलक्षण] दे० 'सुलक्षण' । सुर्ख' वि० [फा० सुख] रक्त वण का। लाल । सुलक्षण-वि० [स०] १ गुम लक्षणो से युक्त । अच्छे लक्षणोवाला । सुर्ख-सशा पुं० गहरा लाल रग । २ भाग्यवान् । किस्मतवर । सुर्ख'---सञ्ज्ञा स्त्री० १ घुघुची । गुजा । एक रत्ती २ गजीफा की एक सुलक्षण-सञ्ज्ञा पु० १ शुभ लक्षण । शुभ चिह्न । २ एक प्रकार का क्रीडा [को०)। छद जिसके प्रत्येक चरण मे १४ मात्राएं होती हैं और सात मात्रामो के बाद एक गुरु, एक लघु और तव विराम होता है। यौ -सुर्खचश्म = जिसकी प्रांखें लाल हो । सुर्खपोश = रक्तावर । लाल कपडे पहननेवाला। सुर्खपोशी = लाल वस्त्र पहनना । सुलक्षणत्व सशा पुं० [स०] सुलक्षण का भाव । सुलक्षणता । सुर्खरग = लाल रंग का । रक्तवर्णवाला। सुलक्षणा' - सशा सी० [सं०] १ पार्वती की एक मखी का नाम । २ श्रीकृष्ण की एक पत्नी का नाम । सुर्खरू-वि० [फा०] १ जिसके मुख पर तेज हो। तेजस्वी । कातिमान् । २ प्रतिष्ठित । समान्य । ३ किसी कार्य में सफलता प्राप्त करने सुलक्षएा'-वि० सी० शुभ लक्षणो मे युक्त। अच्छे लक्षणोवाली। के कारण जिसके मुंह की लाली रह गई हो। सुलक्षणी-वि० स्त्री० [स० सुलक्षणा] दे॰ 'सुलक्षणा' । सुर्खरूई--सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा०] १ सुर्खरू होने का भाव । २ यश । सुलक्षित-वि० [सं०] १ जो सम्यकपेण निश्चित हो । २ जो कीर्ति । ३ मान । प्रतिष्ठा । अच्छी तरह लक्षित अथवा परीक्षित हो किो॰] । सुर्खा-सज्ञा पु० [फा० सुर्ख] १ एक प्रकार का कबूतर जो लाल रग सुलक्ष्य-वि० [सं०] जो ठीक ठीक लक्षित किया जा सके। का होता है। २ सुर्ख रग का अश्व । ३ सुख रग का ग्राम । सुलगा---प्रव्य० [हिं० सु + लगना] पास । समीप। निकट । उ०- सुर्खाब 1-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० सुर्खाब] दे॰ 'सुरखाव' । मुनि वेप घरे धनु सायक सुलग हैं । तुलसी हिये लसत लोने लोने डग हैं। -तुलसी (शब्द॰) । सुर्थी-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [फा० सुर्सी] १ लाली । ललाई । अरुणता । २ लेख सुलगन' - सज्ञा स्त्री० [स० सु + हि० लगना अथवा देश.] सुलगने की आदि का शीर्षक, जो प्राचीन हस्तलिखित पुस्तको मे प्राय लाल क्रिया या भाव । स्याही से लिखा जाता था। लेख, समाचार आदि का शीर्षक। ३ रक्त । लहू । खून । ४ दे० 'सुरखी'। सुलगनर-सहा पुं० [स० सुलग्न] दे० 'सुलग्न' । सुर्शीदार सुरमई-सज्ञा पुं॰ [फा०] एक प्रकार का सुरमई या बैजनी सुलगना-कि० अ० [सं० सु + हिं० लगना] १ (लकडी, कोयले रग जो कुछ लाली लिए होता है। आदि का) जलना । प्रज्वलित हाना । दहकना। २ बहुत अधिक सताप होना। ३ गांजा, तवाकू आदि का पीने लायक सुर्सी मायल-वि० [फा०] लालिमायुक्त । ललौहाँ । उ.-- ओठ होना। पतले तथा गुलाबी रग मे रंगे मालूम होते थे और गाल भरे सुलगाना-क्रि० स० [हिं० सुलगना का स० रूप] १ जलाना । तथा सुर्थी मायल थे।-कठ०, पृ०५० । दहकाना । प्रज्वलित करना। जैसे--लकडी सुलगाना, आग सुर्जना-सज्ञा पुं॰ [देश॰] दे॰ 'सहिजन'। सुल गाना, कोयला सुलगना। सुर्ता-वि० [ह० सुरवि ( = स्मृति)] समझदार । होशियार । सयो० क्रि०-डालना।--देना ।--रखना। बुद्धिमान् । उ०--हीरा लाल की कोठरी मोतिया भरे भडार । २ सतप्त करना । दुखी करना। ३ चिलम पर रखे गांजे तवाकू सुर्ता सुर्ता चुनिया मूरख रहे झख मार ।--कबीर (शब्द॰) । आदि को फंककर पीने लायक करना । सुर्ती--सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं०] दे॰ 'सुरती' । सुलग्न'---सञ्ज्ञा पुं० [स०] शुभ मुहूर्त । शुभ लग्न । अच्छी सायत । सुर्मा-सशा पु० [फा० सुर्मह,] दे॰ 'सुरमा' । सुलग्न'-वि० दृढता से लगा हुआ। सुर्रा'- सञ्चा पुं० [देश॰] १ प्रकार एक की मछली । २ थैली। बटुआ। सुलच्छन-वि० [सं० सुलक्षण] दे० 'सुलक्षण' । उ०--(क) ग्रह सुर्रा--सज्ञा पुं॰ [सुर्र से अनु०] तेज हवा। भेपज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग । होइ कुवस्तु सुवस्तु क्रि० प्र०--चलना। जग लखहिं सुलच्छन लोग ।--तुलसी (शब्द॰) । (ख) नृप सुलक-सज्ञा पुं० [हिं० सोलकी] दे० 'सोलकी' । उ०—तब सुलक लस्यो ततच्छन भरम हर। परम सुलच्छन वरम घर।-गि० नृप आनंद पायो। _ सुत निज तिय महँ जनमायो।- दास (शब्द०)। रघुराज (शब्द०)। सुलच्छनी@ - वि० [हिं० सुलच्छन] दे० 'सुलक्षणा' । उ०-जाय सुहागिनि बसति जो अपने पीहर धाम। लोग बुरी शका कर सुलकी-सज्ञा पुं० [हिं० सोलकी] दे० 'सोलकी' । उ-पौरच पुडीर परिहार ो पँवार बैस, सेंगर सिसोदिया सुलकी दितवार है।- यदपि सती हू वाम। यातें चाहत वधजन रहे सदा पतिगेह । प्रमुदा नारि सुलच्छनी बिनहु पिया के नेह।-लक्ष्मणसिंह सूदन (शब्द०)। (शब्द०)। सुलघित--वि० [सं० सुलडघित] १ जिसे लघन या फाका कराया सुलछ-वि० [सं० सुलक्ष] सुदर। उ०-सुलच्छ लोचन चार गया हो। जिसे उपवास कराया गया हो। २ जो लांघा नासा परम रुचिर बनाइ । युगल खजन लरत अवनित बीच गया हो। कियो बनाइ ।—सूर (शब्द०)।