पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७०५५ सूरन सूरत-सज्ञा स्त्री० [सं० स्मृति] सुध । स्मरण । ध्यान। याद । विशेष दे० 'सुरति' । जैसे,--सब आनद मे ऐसे मग्न थे कि कृष्ण की सूरत किसी को भी न थी। लल्लू (शब्द॰) । सूरत'-वि० [सं०] १ अनुकूल। मेहरवान । कृपालु। २ शात । सीधा [को०]। सूरतार-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० शूरता] दे० 'शूरता'। उ०—विश्वासी के ठगन मै नहीं निपुनता होय। कहा सूरता तासु हनि रह्यो गोद जो सोय ।- दीनदयाल (शब्द॰) । सूरता - सज्ञा स्त्री॰ [स०] सीधी गाय । सूरताई -सञ्ज्ञा स्त्री॰ [हिं० सूरता+ ई (प्रत्य॰)] दे० 'शूरता' । उ०-गरजन घोर जोर पवन चलत जैसो अवर सो सोभित रहत मिलि के अनेक । पुत्र जे धरत ति है तोषत है भली भांति सूर सूरताई लोप करत सहित टेक ।-गोपाल (शब्द॰) । सूरति@!--सज्ञा स्त्री॰ [फा० सूरत] छवि । दे० 'सूरत' । उ०—(क) मूरति की सूरति कही न परै तुलसी पै, जानै सोई जाके उर कसक करक सी।-तुलसी (शब्द०)। (ख) चद भलो मुख- चद सखी लखि सूरति काम की कान्ह की नीकी। कोमल पकज के पदपकज प्राणप्रियारे की मूरति पी की।--केशव (शब्द०)। सूरतिर--सज्ञा क्षी० [सं० स्मृति] सुध । स्मरण ध्यान । याद । उ०- तुलसिदास रघुवीर की सोभा सुमिरि भई है मगन नहिं तन की सूरति ।-तुलसी (शब्द०)। सूरतीखपरा--तज्ञा पुं० [हिं० सूरती ( = सूरत शहर का) + सं० खर्परी] खपरिया। सूरदास---सश ई० [सं०] उत्तर भारत के प्रसिद्ध कृष्णभक्त महाकवि और महात्मा जो अधे थे। विशेष--ये हिंदी भाषा के दो सर्वश्रेष्ठ कवियो मे से एक है। जिस प्रकार रामचरित का गान कर गोस्वामी तुलसीदास जी अमर हुए है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण की लीला कई सहस्र पदो मे गाकर सूरदास जी भी। ये अकवर के काल मे वर्तमान थे। ऐमा प्रसिद्ध है कि बादशाह अकबर ने इन्हें अपने दरवार मे फतहपुर सीकरी मे बुलाया, पर ये न पाए। इन्होने यह पद कहा 'मोको कहा सीकरी सो काम'। इसपर तानसेन के साथ अकवर स्वय इनके दर्शन को मथुरा गया। इनका जन्म सवत् १५४० के लगभग ठहरता है। ये वल्लभाचाय की शिष्यपरपरा मे थे और उनकी स्तुति इन्होने कई पदो मे की है जैसे,--'भरोसो दृढ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ नखचद्र छटा विनु हो हिय मॉझ अँधेरो'। इनकी गणना 'अष्टछाप' अर्थात् ब्रज के पाठ महाकवियो और भक्तो मे थी। अष्टछाप मे ये कवि गिने गए है---कुभनदास, परमानददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, चतुर्भुजदास, नददास और सूरदास । इनमे से प्रथम चार कवि तो वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे और शेष सूरदास आदि चार कवि उनके पुत्र विट्ठलनाथ जी के । अपने अष्टछाप मे होने का उल्लेख सूरदास जी स्वय करते है। यथा-'थापि गोसाई करी मेरी आठ मध्ये छाप'। विट्ठलनाथ के पुन गोकुल- नाथ जी ने अपनी 'चौरासी वैष्णवो की वार्ता' मे सूरदास जी को सारस्वत ब्राह्मण लिखा है और उनके पिता का नाम 'रामदास' बताया है । सूरसारावली मे एक पद मे इनके वश का जो परिचय है, उसके अनुसार ये महाकवि चद वरदाई के वशज थे और सात भाई थे। पर उक्त पद के असली होने मे कुछ लोग सदेह करते हैं। इनका जन्मस्थान भी अनिश्चित है। कुछ लोग इनका जन्म दिल्ली के पास 'सोही' गाँव मे बतलाते है । जनश्रुति इन्हे जन्माध कहती है, पर ये जन्माध न थे। ऐसी भी किवदती है कि किसी परस्त्री के सौदर्य पर मोहित हो जाने पर इन्होने नेत्रो का दोप समझ उन्हे फोड डाला था। भक्तमाल मे लिखा है कि आठ वर्ष की अवस्था मे इनका यज्ञोपवीत हुग्रा और ये एक बार अपने माता पिता के साथ मथुरा गए। वहाँ से वे घर लौट कर न आए, कहा कि यही कृष्ण की शरण मे रहँगा । 'चौरासी वैष्णवो को वार्ता' के अनुसार ये गऊघाट मे रहते थे जो प्रागरा और मथुरा के बीच मे है। यही पर ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए और इन्ही के साथ गोकुलस्थ श्रीनाथ जी के मदिर मे बहुत काल तक रहे। इसी मदिर मे रहकर ये पद बनाया करते थे। यो तो पद बनाने का इनका नित्य नियम था, पर मदिर के उत्सवो पर उसी लीला के सवध मे बहुत सा पद बनाकर गाया करते थे। ऐसा प्रसिद्ध है कि ये एक बार कुएं में गिर पडे और छह दिन तक उसी मे पडे रहे । सातवे दिन स्वय भगवान् श्रीकृष्ण ने हाथ पकड कर इन्हें निकाला। निकलने पर इन्होने यह दोहा पढा-'बाह छुडाए जात हो निबल जानि के मोहिं । हिरदै सो जब जायही मरद बदौगो तोहिं ।' इसमे सदेह नही कि ब्रजभाषा के ये सर्वश्रेष्ठ कवि है, क्योकि इन्होने केवल ब्रजभाषा मे ही कविता की है, अवधी मे नही । गोस्वामी तुलसीदास जी का दोनो भाषामो पर समान अधिकार था और उन्होने जीवन की नाना परिस्थितियो पर रसपूर्ण कविता की है । सूरदास मे केवल शृगार और वात्सल्य की पराकाष्ठा हे। सवत् १६०७ के पूर्व इनका सूरसागर समाप्त हो गया था, क्योकि उसके पीछे इन्होने जो 'साहित्य लहरी' लिखी है, उसमे मवत् १६०७ दिया हुआ है। सूरन-सज्ञा पुं० [ स० सूरण ] एक प्रकार का कद जो सब शाको मे श्रेष्ठ माना गया है। जमीकद । अोल । शूरण । सूरन । विशेष-सूरन भारतवर्ष मे प्राय सर्वत्र होता हे पर वगाल मे अधिक होता है। इसके पौधे २ से ४ हाथ तक के होते है। पत्तो मे बहुत से कटाव होते है। इसके दो भेद है । सूरन जगली भी होता है जो खाने योग्य नहीं होता और बेतरह कटला होता है। खेत के सूरन की तरकारी, अचार आदि बनते है जिन्हें लोग बडे चाव से खाते है। वैद्यक मे यह अग्निदीपक, रूखा, कसला, खुजली उत्पन्न करनेवाला, चरपरा, विष्टभकारक, विशद, रुचिकारक, लघु, प्लीहा तथा गुल्म नाशक और अर्श (बवासीर) रोग के लिये विशेष उपकारी माना गया है। दाद,