। सँहिक ७०८३ सकता सेंहिक'--वि० सिंह के समान । सिंह तुल्य । सिंह जैसा । सपना-क्रि० स० [स० समर्पण पु० हिं० मउँपना, मोपना] ३० सेंहिकेय-सज्ञा पुं० [सं०] १ सिंहिका का पुत्र राहु । २ दानवो का 'सौंपना' । उ०--भारी कठोर हियो करि के तिय मंपि विदा एक वर्ग [को०)। भो विदेस के ईछे।-पजनेम०, पृ० ३२ । सैंगर-सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'से गर' ३ । सैंबल-सश पुं० [सं० शिम्बल] 'समर' । उ०--विष ताको सेजल-वि० [सं० सम + जल] जल के समान । जलयुक्त । जल अमृत करि जान सो सँग आवै माय । मैं बल के फूलन परि या पानी के साथ। उ०-झिरिमिरि झिरिमिरि वरपिया फूल्यो चूको अवको घात ।-दादू०, पृ० ६२६ । सैंयाँ-शा ० [हिं० सैयां] दे० सयाँ' । पहिण ऊपरि मेह । मांटी गलि सैजल भई पाहण वोही तेह। -कवीर ग्र०, पृ०५५। सैवर-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे० 'सांभर' । उ०-सज्जी मीचर संवर सैंणर-सब -सज्ञा पुं० [सं० स्वामी+नर, हिं० साईनर, या स० स्वजन, सोरा । साँखाहूली सीप सिकोरा।-सूदन (शब्द०)। प्रा० सजण, सयण, पु० हिं० सैण + अर (प्रत्य॰)] पति । सँवार --सशा पुं० [स० शैवाल या पुं० शत + वाट्] १ दे० 'सेवार।' खाविंद (डि०)। २ शतधा । टुकडे टुकडे । उ०-कवीर देवल ढहिं पड्या इंट भई सवार।-कवीर ग्र०, १२, पद्य १८ । सतना--क्रि० स० [सं० सञ्चयन या हिं० सँचय+ना (प्रत्य॰)] सँहथी- १ सचित करना । एकत्र करना । वटोरना । इकट्ठा करना । -सज्ञा स्त्री० [सं० शक्ति] दे० 'सयो' । उ०—(क) सोई पुरुष दरव जे सती । दरबहि तें सुनु वातें मैं हुड़-सशा पुं० [स० सेहुण्ड] दे० 'सेहुँड' । एती।—जायसी (शब्द॰) । (ख) कहा होत जल महा मैं हूँ -सञ्ज्ञा पुं० [हिं० गेहूँ का अनु०] गेहूँ के वे दाने जो छोटे काले प्रलय को राख्यो सति सैति है जेह । भुव पर एक बूंद नहिं और वेकार होते है। पहुंची निझरि गए सब मेह । —सूर (शब्द०)। २ हाथो से सै-वि०, सज्ञा पु० [सं० शत, प्रा० सय, सइ] मी। उ०-सवत समेटना । इधर उधर से सरकाकर एक जगह करना। बटोरना। सोरह से इकतीसा । करउँ कथा हरिपद धरि सीसा।-तुलसी उ०-सखि वचन सुनि कौसिला लखि सुढरपासे ढरनि । लेति (शब्द०)। भरि भरि अक, सैतति पैंत जनु दुहुँ करनि । तुलसी विशेष-इसका प्रयोग अधिकतर किसी सस्या के ग्रागे होता है। (शब्द०)। ३ सहेजना। संभालकर रखना। सावधानी से अपनी रक्षा मे करना । सवाचना । जैसे,--जो रुपया मैंने दिया सै--सज्ञा स्त्री० [सं० सत्व, प्रा० सत्त] १ तत्व । सार । माद्दा । है, उसे सैतकर रखना। ४ मार डालना। ठिकाने लगाना। २ वीर्य । शक्ति। प्रोज। उ०--विनती सो परसन्न सद (वाजारू)। ५ घन मारना । चोट लगाना । ती सो प्रसन्न मन । विनस देखत सन्नु है यह मं जाके तन । सैंतालिस-वि०, सञ्ज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'सैतालीस' । -गोपाल (शब्द॰) । ३ वढती । वरकत । लाभ । सैतालीस-वि० [म० सप्तचत्वारिंशत्, पा० सत्तचत्तालीसति, प्रा० सैल-वि० [स० सदृश, प्रा० सदिस, गइन] नमान । तुत्य । उ०- सत्तालिस] जो गिनती मे चालीस से सात अधिक हो। चालिस लखण वतीसे मारुवी निधि चद्रमा निलाट । काया कुंकू जेहवी कटि केहरि से घाट । -ढोला०, दू० ४६६ । सैंतालीस--सबा पुं० चालिस से सात अधिक को सस्था या प्रक जो संकट-सञ्ज्ञा पुं० [सं० शतकण्टक] वयूल की जाति का एक पेड जिसकी इस प्रकार लिखा जाता है-४७ । छाल सफेद होती है । धोला पर । कुमतिया। सैतालीसा-वि० [हिं० सैतालीस + वा (प्रत्य॰)] जो क्रम मे छिया- विशेष-यह बगाल, विहार, अासाम तथा दक्षिण और मध्यप्रदेश लिस और वस्तुप्रो के उपरात हो । क्रम मे जिसका स्थान आदि मे विध्य की पहाडियो पर होता है। सैतालिस पर हो। सैकड़ा-सचा पुं० [० शतकाण्ड, प्रा० सयकड] १. सौ का समूह । शत की समप्टि । जैसे,-२ सैकडे प्राम।२१०६ ढोली पान । सैतिस-वि० [स० सप्तत्रिंशत्] दे० 'संतीस' । सैंतीस-वि० [सं० सप्तत्रिंशत्, पा० सप्ततिसति, प्रा० सत्तिसइ] जो (तबोली)। गिनती मे तीस से सात अधिक हो। तीस पौर सात । सैकड़े-क्रि० वि० [हिं० सैकडा] प्रति सौ के हिसाब से । प्रतिशत । सैतीस-सज्ञा पुं॰ तीस से सात अधिक का अक जो इस प्रकार लिखा फीसदी । जैसे,-५) सैकडे व्याज । जाता है-३७। सैकड़ो-वि० [हिं० संकडा] १ कई सौ। २ वहुसय्यक । गिनती मे सैतीसवा-वि० [हिं० संतीस+वां (प्रत्य॰)] जो क्रम मे छत्तीस वहुत । जैसे,—सैकडो प्रादमी। मौर वस्तुप्रो के उपरात हो । क्रम मे जिसका स्थान सैतीस सैकत'-वि० [•] [वि० सी० संकती] १ रेतीना । वलुप्रा । वालुका पर हो। मय । २ वालू का बना। सैंथी@+-सज्ञा पुं० [स० शक्ति] एक प्रकार का शस्त्र । उ०- सेकत-संशा पुं० १ बनुमा किनारा । रेतीला नट । २ नट Inार इन्द्रजीत लीनी जव सैथी देवन हहा करघो।-सूर०, ६।१४४ । (को०)। ३. रेतीली मिट्टी । वतुई जमीन । ४ बालू का ढेर और सात ।
पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४६३
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