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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४७१

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सोई ७०६१ सोस्तनी सोइ-सर्व० [हिं० सैव] वही । वह ही। उ०—(क) मेरी भव वाधा सोखक-वि० [स० शोषक] १ शोपण करनेवाला । २ नाश हरी राधा नागरि सोइ । जा तन की झाई परे स्याम हरित करनेवाला । उ०-चाल चलि चद्रमुखी सांवरे सखा १ गि, दुति होइ ।-विहारी (शब्द॰) । (ख) सातो द्वीप कहे शुक सोखक जु केसोदास अरि सुख साज के। चढि चढि पवन मुनि ने सोइ कहत अव सूर । —सूर (शब्द०)। (ग) सोइ तुरगन गगन धन, चाहत फिरत चद योधा यमराज के।--केशव रघुवर सोइ लछिमन सीता। देखि सती अति भई सभीता। (शब्द०)। तुलसी (शब्द०)। सोखता--वि॰ [फा० सोख्ता] दे० 'सोख्ता' । उ०--में मुहदा तन सोखता सोई-सज्ञा स्त्री० [स० स्रोत, स्रोतिका, हि० सोता] वह जमीन या विरहा दुख जार। जिय तरस दीदार को दादू न विसार। गड्ढा जहाँ बाढ या नदी का पानी रुका रह जाता है और दादू० वनी, पृ०५०४॥ जिसमे अगहनी धान की फसल रोपी जाती है । डाबर । सोखता-सहा पु० दे० 'सोख्ता। सोई'--सर्व० [सं० संव] दे० 'वही' । उ०--बहुरि पाड देखा सुत सोखन'--सया पुं० [देश॰] १ स्याही लिए सफेद रंग का बैल । २ सोई । हृदय कप मन धीर न होई |--मानस, ११२०१। एक प्रकार का जगली धान जो नदी की घाटी मे बलुई जमीन सोई-अव्य० [हिं०] दे० 'सो'। उ०--सोई मैं स्वशुरालय जाती मे वोया जाता है। थी।-प्रताप (शब्द०)। सोखन:--मज्ञा पुं० [स० शोपण] काम का एक वाण । दे० सोक'--सज्ञा पुं० [देश०] चारपाई बुनने के समय बुनावट मे का वह 'शोपण' । उ०-सोखन दहन उचाटन छोभन । तिन मैं निपट छेद जिममे से रस्सी या निवार निकाल कर कसते है। बुरी समोहन ।-नद० ग्र०, पृ० १४० । सोक-सज्ञा पुं० [सं० शोक, प्रा० सोक] दे० 'शोक' । उ०-समन पाप सोखना-क्रि० स० [स० शोपण] १ शोपण करना । रस खीच लेना। सताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के।-तुलसी चूस लेना। सुखा डालना। उ०-(क) ग्रह मिट्टी".पानी (शब्द०)। को खूब सोखती है।-खेतीविद्या (शब्द०)। (ख) सेर भर सोकडली@f-संज्ञा सी० [देश॰] दे० 'सौत' । उ०--सोकडल्यां चख चावल सेर ही भर घी सोखता है।-शिवप्रसाद (शब्द०)। माहि करै कडवाइयां ।-बांकी० ग्र०, भा० ३, पृ० ३१ । (ग) उदित अगस्त पथजल सोखा । जिमि लोभहि सोखइ सतोषा। -तुलसी (शब्द०)। (घ) उत रुखाई है घनी थोरो मोप सोकन-सचा पुं० [देश॰] दे॰ 'सोखन । नेह । जाही अग लगाइए सोई सोय लेह । -रसनिधि (शब्द०)। सोकना'@-क्रि० स० [स० शोक प्रा० सोक + हिं० ना (प्रत्य॰)] (ड) वाही हाथ कुच गहि पूतना के प्राण सोखे पाय ऊँचो पद शोक करना । दुख करना। रज करना । उ०--तुव पर पालि निज धाम को सिधारी है। -अजचरित्र०, पृ० १३ । २ पीना। विपिन करि देही । पुनि तुव पद पकज सिर नहो। यो सुनि पान करना । (व्यग्य)। नृपति मनहिं मन सोक्यो। पुनि पुनि रामवदन अवलोक्यो।-- संयो० कि.--जाना।--डालना।लेना। पद्माकर (शब्द०)। सोखरी --सज्ञा स्त्री० [हिं० सोखना या सुखाना या स० शुष्कफली] सोकना-क्रि० स० [स० शोषण] दे० 'सोखना' । उ०—(क) पाठ पेड का सूखा हुना महुअा। मास जो सूर्य जल सोकता है, सोई चार महीने बरसता है।- सोखा-सज्ञा पुं० [स० सूक्ष्म या चोखा ?] १ चतुर मनुष्य । होशि- लल्लू ० (शब्द॰) । (ख) वुद सोकिगो कुहा महासमुद्र छीजई। यार ग्रादमी। २ जादूगर | ३ झाड फूक, जतर मतर करने- केशव (शब्द०)। वाला व्यक्ति। सोकनी-वि० [हिं० सोकन] कालापन लिए सफेद रंग का (बैल)। सोखाई-सज्ञा स्त्री० [हिं० सोखा+ ई (प्रत्य॰)] जादू। टोना सोकरहा -सज्ञा पुं० [हिं० सोकार] वह आदमी जो कूएँ पर खडा सोखाई'--सज्ञा स्त्री० हिं० सोखना] १ सोखने की क्रिया या भाव । होकर पानी से भरे हुए चरसे या मोट को नाली मे उलटकर २ सोखने या सोखाने की मजदूरी। खाली करता है। वारा। सोखाना --क्रि० स० [हिं० सुखाना] दे० 'सुखाना' । सोकारा-सज्ञा पुं० [हिं० सोकना, सोखना ] वह स्थान जहाँ खेत सोखावनाg -क्रि० स० [हिं० सुखाना] दे० 'सुखाना'। सोचनेवाले कूएँ से मोट निकालकर गिराते है । सिंचाई के लिये मघवानल वहि अगिन समानी । अगिन अगस्त सोखावत पानी। पानी गिराने की कूएँ पर की नाली। छिउलारा । चौढा । -हिंदी प्रेमा०, पृ० २७५ । सोकित--वि० [स० शोकित] शोकयुक्त । उ०-मुहिं स्वारय सोखीन-वि० [अ० शोक, शौकीन] दे० 'शौकीन'। उ.--घर पर ढोठ बनायो तुमको जब सोकित देख्यो।-प्रताप (शब्द०)। अमल सब जने खावे सोखीन माही उनर प्यावे ।-दविखनी०, सोक्कन-मशा पुं० [देश॰] दे० 'सोखन' । पृ० १२४। सोखg+-वि० [फा० शोख] दे० 'शोख' । सोख्त-सज्ञा स्त्री० [फा० सोस्त] जलन । दाह [को०] । सोख-वि० [स० शुष्क, प्रा० सुक्क] शुष्क करनेवाला या सुखानेवाला। सोस्तनी-वि० [फा० सोतनी] दाह या जलन योग्य । जलनशील । जैसे-स्याही सोख । जलाने लायक [को०)।