पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सोम ८००१ सोमकीति कर रस निकालते थे और वह रस किसी ऊनी कपडे मे छान देनेवाले माने जाते थे। ये इद्र के साथ उसी के रथ पर बैठकर नेते थे। यह रस यज्ञ मे देवतामो को चढाया जाता था और लडाई मे जाते थे । कही कही ये इद्र के सारथी भी कहे गए अग्नि मे इसकी आहुति भी दी जाती थी। इसमे दूध या मधु है। प्रार्यों को ईरानी शाखा मे इनकी पूजा होती थी और भी मिलाया जाता था। ऋक् सहिता के अनुसार इसका उत्पत्ति प्रावस्ता मे इनका नाम 'होम' या 'होम' पाया है। स्थान मृजवान पर्वत है, इसी लिये इसे 'मौजवत्' भी कहते थे। ४ चद्रमा। ५ सोमवार। ६ सोमरस निकालने का दिन । ७ इसी सहिता के एक दूसरे सूक्त मे कहा गया है कि श्येन पक्षी कुवेर । ८ यम। ६ वायु। १० अमृत। ११ जल । १२. ने इसे स्वर्ग से लाकर इद्र को दिया था। ऋग्वेद मे सोम की सोमयज्ञ । १३ एक बानर का नाम। १४ एक पर्वत का शक्ति और गुणो की बडी स्तुति है। यह यज्ञ की आत्मा और नाम । १५ एक प्रकार की ओपधि । १६ स्वर्ग। आकाश । अमृत कहा गया है। देवताओ को यह परम प्रिय था। वेदो मे १७ अष्ट वसुग्रो मे से एक। १८ पितरो का एक वर्ग । सोम का जो वर्णन पाया है, उससे जान पडता है कि यह बहुत १९ मांड । २० कांजी। २१ हनुमत के अनुसार मालकोश अधिक बलवर्धक, उत्साहवर्धक, पाचक और अनेक रोगो का राग के एक पुत्र का नाम । (सगीत) । २२ विवाहित पति । नाशक था। वैदिक काल मे यह अमृत के समान बहुत ही दिव्य ---सत्यार्थप्रकाश । २३ एक बहुत वडा ऊँचा पेड । पेय समझा जाता था, और यह माना जाता था कि इसके विशेष-इस पेड की लकडी अदर से बहुत मजबूत और चिकनी पान से हृदय से सब प्रकार के पापो का नाश तथा सत्य और निकलती है। चीरने के बाद इसका रंग लाल हो जाता है । धर्मभाव की वृद्धि होती है। यह सब लतानो का पति और यह प्राय इमारत के काम में आती है। आसाम मे इसके राजा कहा गया है। आर्यो की ईरानी शाखा मे भी इस लता पत्तो पर मूंगा रेशम के कीडे पाले जाते हैं । के रस का बहुत प्रचार था। पर पीछे इस लता के पहचानने- २४ एक प्रकार का स्त्रीरोग । सोमरोग । २५ यज्ञद्रव्य । यज्ञ वाले न रह गए। यहाँ तक कि आयुर्वेद के सुश्रुत आदि की सामग्री। २६ सुग्रीव (को०) । २७ (पदात मे) श्रेष्ठ । आचार्यों के समय मे भी इसके सवध मे कल्पना ही कल्पना रह उत्कृष्ट । प्रधान । जैसे, नृसोम । गई जो सोम (चद्रमा) शब्द के आधार पर की गई। पारसी सोम-मज्ञा पुं॰ [स० सोमन्] १ वह जो सोमरस चुमाता या वनाता लोग भी आजकल जिस 'होम' का अपने कर्मकाड मे व्यवहार हो । २ सोमयज्ञ करनेवाला। ३ चद्रमा । करते हैं, वह असली सोम नही है। वैद्यक मे सोमलता की गणना दिव्योप धियो मे है । यह परम रसायन मानी गई है और सोमक--मज्ञा पु० [सं०] १ एक ऋषि का नाम । २ एक राजा का नाम । ३ भागवत के अनुसार कृष्ण के एक पुत्र का नाम । लिखा गया है कि इसके पद्रह पत्ते होते हैं जो शुक्लपक्ष मे- प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक-एक एक करके उत्पन्न होते है ४ द्रुपद वश या इस वश का कोई राजा। ५ स्त्रियो का सोम नामक रोग । ६ एक देश या जाति । ७ सहदेव के एक और फिर कृष्ण पक्ष मे---प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक-- पुत्र का नाम । पद्रह दिनो मे एक एक करके वे सब पत्ते गिर जाते हैं। इस प्रकार अमावस्या को यह लता पत्रहीन हो जाती है। सोमकन्या--सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] चद्र या सोम की पुत्री (को०] । पर्या-सोमवल्ली। सोमा। क्षीरी। द्विजप्रिया । शणा । यश- सोमकर--सज्ञा पु० [स० सोम+कर] चद्रमा की किरण । उ०- श्रेष्ठा । धनुलता । सोमाही। गुल्मवल्ली। यज्ञवल्ली । सोम मधुर प्रिया घर सोमकर माखन दाख समान। बालक वाते क्षीरा । यज्ञाहा। तोतरी कवि कुल उक्ति प्रमान ।-(शब्द०)। २ एक प्रकार की लता जो वैदिक काल के सोम से भिन्न है। सोमकर्म-सज्ञा पु० [सं० सोमकर्मन्] सोम प्रस्तुत करने की किया। सोम रस तैयार करना। विशेष-यह दूसरी मोम लता दक्षिण की सूखी पथरीली जमीन मे होती है। इसका क्षुप झाडदार और गांठदार तथा पत्रहीन सोमकलश-प्रज्ञा पुं॰ [स०] वह कलश जो सोमयुक्त हो। सोम का होता है । इसकी शाखा राजहम के पर के समान मोटी और घडा [को०)। हरी होती है और दो गाँठो के बीच की शाखा ४ से ६ इच सोमकल्प--सज्ञा पुं० [स०] पुराणानुसार २१वें कल्प का नाम । • तक लवी होती है । इसके फूल ललाई लिए बहुत हलके रग के सोमकात-सज्ञा पुं० [म० सोमकान्त चद्रकात मरिण । - होते हैं । फलियाँ ४-५ इच लबी और तिहाई इच गोल होती सोमकातर-वि० १ चद्रमा के समान प्रिय या सुदर । २ जिसे चद्रमा हैं। बीज चिपटे और १ से १ इच तक लबे होते है । प्रिय हो। ३ वैदिक काल के एक प्राचीन देवता जिनकी ऋग्वेद मे बहुत सोमकाम-वि० [स०] सोमपान करने का इच्छुक । सोमकामी । स्तुति की गई है । इद्र और वरुण की भांति इन्हे मानवी रूप सोमकाम-सञ्ज्ञा पुं० सोमपान करने की इच्छा। नही दिया गया है। विशेष-ये सूर्य के समान प्रकाशमान, बहुत अधिक वेगवान्, सोमकामी-वि०, सज्ञा पुं॰ [सं० सोमकामिन्] दे० 'सोमकाम' [को॰) । जेता, योद्धा और मवको सपत्ति, अन्न तथा गौ, बैल आदि सोमकीर्ति-सञ्ज्ञा पु० [सं०] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । हि० श० १०-५६