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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 10.djvu/४८०

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सोपानक 5000 सोम यो०--मोपानकूप = वह कुआँ जिसमे सीढियाँ बनी हैं। सोपान सोबरन@--सज्ञा पुं० [स० सुवर्ण] दे० 'सुवर्ण'। उ----उदित अंधेरी पय, सोपानपथ, सोपानपद्धति, पोपानपरपरा = सीढियो का मे अाज भृगु है, कि जिनमे ग्रामा हे सोवरन की। --पोद्दार क्रम या सिलसिला। जीना। सापानमार्ग = जीना। सोपान- अभि० ग्र०, पृ० ८८६ माला = चक्करदार सीढियाँ, जो प्राय बुर्ज, मीनार आदि मे सोबरि, सोबरी -सञ्ज्ञा स्त्री० [स० सूति + गृह] सूतिकागृह । सौरी। होती है। उ०--ग्रावी, अावी, सासु मेरी आवी, मेरी सोवरि के बीच सोपानक---सज्ञा पु० [सं०] १ सोने के तार मे पिरोई हुई मोतियो चरुग्रा धरावी।-पोद्दार अमि० ग्र०, पृ० ६१३ । की माला।२ दे० 'सोपान' । सोवनी, सोबन्न-सज्ञा पु० [सं० सुवर्ण, स्वण] दे० 'सुवर्ण' । यो०-सोपानक पद्धति = सीढियो का क्रम, सिलसिला । . सोभव--सशा श्री० [स० शोभा] उ०-(क) अग अग अानंद उमगि सोपानिक-वि० [सं०] सोपान से युक्त । सीढियो से युक्त । उ०- उफनत बैनन माझ । सखी सोभ सब वसि भई मनो कि फूली सरयू तीर हेम सोपानित सब थल करहिं प्रकासा । -रघुराज साँझ |--पृ० रा०, १४१५५ । उ०-अति सु दर शीतल सोभ (शब्द०)। बस । जहँ रूप अनेकन लोभ लसै ।-केशव (शब्द॰) । सोपारी -सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० सुपारी] दे० 'सुपारी'। सोभ-सज्ञा पुं० [सं०] गधर्वो के नगर का नाम । सोपाश्रय'--वि० [सं०] उपाश्रय या अवलव से युक्त । सोभन-सज्ञा पुं०, वि० [स० शोभन] दे० 'शोभन' । सोपाश्रय ---सज्ञा पुं० योग का एक प्रासन (को॰] । सोभना@1-कि० अ० [स० शोभन] सोहना। शोभित होना। सोपासन-वि० [सं०] १ उपासनायुक्त । २ जो पवित्र अग्नि से युक्त उ०—(क) सिंधु मे बडवाग्नि की जनु ज्वाल माल विराजई । हो । होमाग्नियुत । पद्मरागनि सो किधी दिवि धूरि पूरित मोभई ।-केशव सोपि, सोपी--वि० [८० स + अपि, सोऽपि] १ वही । उ०-याकर (शब्द०) । (ख) कुडल सुदर सोभिज स्याम गात छबि दान । चारि जीव जग अहही। कासी मरत परम पद लहही। सोपि --केशव (शब्द०)। राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेश करत करि दाया।- सोभनीक-वि० [सं० शोभन] शोभायुक्त । सुदर । दे० 'शोभित' । उ०-और तुलसी (शब्द॰) । २ वह भी। उ०--सव ते परम मनोहर काहू रंति के स्वरूप होइ सोभनीक, ताहू को तो गोपी। नदनंदन के नेह मेह जिनि लोक लीक लोपी। हरि देखि करि निकट बुलाइए।-सुदर ग्र०, भा॰ २, पृ० ४८० । कुवजा के रगहि राचे तदपि तजी सोपी। तदपि न तज भज सोभर-सज्ञा पुं० [सं० सूतिगृह ?] वह कोठरी या कमरा जिसमे निसि वासर नैकहु न कोपी।--सूर (शब्द॰) । स्त्रियाँ प्रसव करती है । सौरी । जच्चाखाना । सूतिकागार । सोभरि-सज्ञा पु० [स०] एक वैदिक ऋपि । सोफ-सज्ञा पुं० [अ० सोफ] दावात मे डालनेवाला कपडा । उ०-- मन ममिदानी साँच की स्याही, सुरति सोफ भरि डारी।-- सोभाजन-सज्ञा पुं० [सं० सोभाजन] दे० 'शोभाजन'। धरनी० वानी०, पृ० ३। सोभा-सशा । [सं० शोभा, प्रा० सोमा] दे० 'शोभा'। उ०- सोफता-संज्ञा पुं० [सं० सुविधा] १ एकात स्थान । निराली जगह । (क) सब सोभा ससि सानि के साँची इछिनि एक ।-पृ० रा०, उ०--(क) इनका मन किसी और बात मे लगा हुआ है, १४१५६ । (ख) राधा दामिनि के सँग मोमा सरस्थो करें। तुम कडो की बात फिर कभी पोफते मे पूछ लेना ।-- -प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ० २०१। श्रद्धाराम (शब्द॰) । (ख) वह उसे सोफते मे ले गया। सोभाकारी--वि० [सं० शोभाकर] जो देखने मे अच्छा हो। सुदर । २ रोग आदि मे कुछ कमी होना । बढिया । उ०---शीश पर धरे जटा मानौ रूप कियो ग्निपुरारि । सोफा-सज्ञा पु० [अ०] लवी, दो तीन व्यक्तियो के तिलक ललित ललाट केसर विंद सोभाकारि।-सूर (शब्द०)। योग्य, प्राय गद्दीदार, कुरसी। सोभायमान-वि० [स० शोभायमान] दे० 'शोभायमान' । सोफियाना--वि० [अ० सूफी + फा० इयाना] (प्रत्य॰)] १ सूफियो सोभार-वि० [म० स ( = सह) + हिं० + उभार] उभार के साथ । का । सूफी सवधी। २ जो देखने मे सादा पर बहुत भला लगे। उभरा हुअा। उ०--मुक्त नभ वेणी मे सोभार, सुहाती रक्त जैसे,--सोफियाना कपडा, सोफियाना ढग । पलाश समान।--गुजन, पृ०४६ । विणेष-सूफी लोग प्राय बहुत सादे, पर सु दर ढग से रहते थे, सोभित-वि० [स० शोभित] दे० 'शोभित' । इसी मे इस गब्द का इस अर्थ मे व्यवहार होने लगा। सोभिल+--वि० [स० शोभिल, प्रा० सोहिल्ल] शोभायुक्त । शोभित । सोफी-यज्ञा पुं० [फा० सूफी] स्त्री० सोफनि, सोफिन] दे० 'सूफी'। उ०-गुजत ग्राम सोभिल कुँअरि । तिहि हरत हरनि मन- उ०--दादू, सोइ जोगी मोइ जगमा, सोइ सोफी सोइ सेख । मत्थ रारि ।--पृ० रा०, १४१६७ । जोगिणि ह जोगी गहे, सोफरिण है करि सेख --दादू० सोम--सज्ञा पुं० [सं०] १ प्राचीन काल की एक लता का नाम । बानो, पृ० २३६। विशेष--इस लता का रस पीले रग का और मादक होता था और सोब-सज्ञा पु० [देश॰] दे० 'सोप' । इसे प्राचीन वैदिक ऋपि पान करते थे। इसे पत्थर से कुचल