पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हयनो हमेल--सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० हमायल] सिक्को या सिक्के के प्राकार के धातु मुंह के कारण) । ३. चार मात्रामो का एक छद । ४ इद्र का के गोल टुकडो की माला जो गले मे पहनी जाती है। एक नाम । ५ धनु राशि । ६ रतिमजरी के अनुसार एक विशेष—यह प्राय अशरफियो या पुराने रुपयो को तागे मे गूथ विशेष प्रकार का पुरुप (को०) । कर बनती है। हयकर्म-सज्ञा ० [स० हयकमन्] घोडो का ज्ञान [को०] । हमेवg -सज्ञा पु० [स० अहम् + एव] अहकार । अभिमान । हयकातरा, हयकातरिका-सज्ञा स्त्री० [म०] राजनिघटु के अनुसार मुहा०--हमेव टूटना = गर्व चूर्ण होना। शेखी निकल जाना । एक पौधा जिसे अश्वकातरा भी कहते है [को॰] । हमेशा-अव्य० [फा० हमेशह, ] सब दिन या सव समय । सदा । सर्वदा हयकोविद-वि० [स०] अश्वशास्त्न का ज्ञाता (को०)। सदैव । जैसे,—(क) वह हमेशा ऐसा ही कहता है। (ख) हयगध-सज्ञा पुं० [मं० हयगन्ध] काला नमक । इस दवा को हमेशा पीना। हयगधा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० हयगन्धा] १ अश्वगधा । अमगध । २ यवानी। मुहा०-हमेशा के लिये = सब दिन के लिये । अजमोदा (को०)। हमेस, हमेसा-अव्य० [फा० झेशह,, हमेशा] दे॰ 'हमेशा' । हयगर्दभि-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं०] शिव का एक नाम (को०] । भलि तजत ही भूल नहिं यहै भूलि को देस । तुम जिन भूली हयगृह--सचा पुं० [सं०] अश्वशाला । घुडसार । नाथ मम राखहु सुरत हमेस ।--स० सप्तक, पृ० ३४५। हयग्रीव-सन्चा पु० [सं०] १ विष्णु के चौवीस अवतारो मे से एक हमैं -अव्य० [हिं०] दे॰ 'हम' । अवतार। हम्द-सज्ञा स्त्री० [अ०] खुदा या ईश्वर का स्तोत्र । प्रार्थना। उ०- विशेप-मधु और कैटभ नाम के दो दैत्य जव वेद को उठा ले गये क्या नस्र क्या नज्म हर एक वाद कू, जेव व रौनक है खुदा के थे, तब वेद के उद्धार और उन राक्षसो के विनाश के लिये हम्द सूं।-दक्खिनी०, पृ० २०० । भगवान् ने यह अवतार लिया था। हम्माम-सञ्ज्ञा पुं० [अ०] नहाने की कोठरी जिसमे गरम पानी २ एक अमुर या राक्षम । रखा रहता है और जो आग या भाप से गरम रखी जाती है। विशेष- यह असुर कल्पात मे ब्रह्मा की निद्रा के ममय वेद उठा ले स्नानागार। गया था । विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर वेद का उद्धार किया और इस राक्षस का वध किया था। हम्माल-सञ्ज्ञा पु० [अ०] मजूर । मोटिया। दे० 'हमाल'१ को०)। हम्मीर-सञ्ज्ञा पुं० [स०] १ सपूर्ण जाति का एक सकर राग जो ३ रामायण के अनुसार एक और राक्षस का नाम । वौद्धो के एक देवता। शकराभरण और मारू के मेल से बना है । यौ० --हयग्रीवरिपु-विष्णु का एक नाम । हयग्रीवहा = विष्णु । विशेप-इसमे सव शुद्ध स्वर लगते हैं और इसके गाने का समय सध्या को एक से पांच दड तक है । यह राग धर्म सवधी उHAT हयग्रीवा-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम । या हास्य रस के लिये अधिक उपयुक्त समझा जाता है । यघ्न--सञ्ज्ञा पुं० [स०] कनर । करवीर [को०] । ह्यचर्या-सज्ञा स्त्री० [स०] यज्ञ के अश्व का परिभ्रमण [फो०] । २ रणथभोर गढ का एक अत्यत वीर चौहान राजा जो सन् १३०० हयच्छटा-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स०] घोडो का झुड । हयदल [को०] । ई० मे अलाउद्दीन खिलजी से वडी वीरता के साथ लडकर हयज्ञ-सज्ञा पुं० [सं०] १ घोडे का जानकार । २ साईस (को०] । हम्मीरनट--सज्ञा पुं० [सं०] सपूर्ण जाति का एक सकर राग । हयज्ञान-सज्ञा पुं० [सं०] घोडो का ज्ञान [को०] । विशेष--यह राग नट और हम्मीर के मेल से बना है। इसमे सब हयदानव--सम्रा पुं० [स०] केशी नामक एक राक्षस (को०] । शुद्ध स्वर लगते हैं। हयद्विषन्--सज्ञा पुं० [स०] महिप । भैसा [को०] । हम्ह@-सर्व० [हिं० हम] दे० 'हम' । उ०--अव होइ सुभर दहहि हयन--सज्ञा पुं० [सं०] १ वर्ष । साल । २ चारो तरफ से ढकी हुई हम्ह घटै।-जायसी ग्र०, पृ० ७५ । गाडी या पालकी जिसपर अोहार पडा हो (को०) । हम्ह'--सर्व० [हिं० हमे] दे॰ 'हमे' । उ०-सो धनि विरहै जरि मुई हयना--क्रि० स० [स० हत, प्रा० हय + हिं० ना (प्रत्य॰)] १ वध तेहि क धुवाँ हम्ह लाग |---जायसी ग्र०, पृ० १५० । करना । मार डालना । हनन करना। उ०--(क)छन महं सकल हयकष--सज्ञा पु० [सं० हयङ्कप] १ रथ का चालक । सारथि । २ इद्र निशाचर हये । -तुलसी (शब्द०)। २ मारना। पीटना। के सारथी मातलि का नाम [को०)। चोट लगाना। ३. पीटकर बजाना । ठोककर बजाना । उ०- देवन हये निसान। -तुलसी (शब्द०)। ४ काटना । छिन्न करना । हयद-सज्ञा पु० [स० हयेन्द्र] वडा या अच्छा घोडा । उ०—यो कहि अग से अवयव विच्छिन्न करना। उ०-कटत झटिति पुनि नूतन हयद हक्किय हरपि दत चव्वि सेलहिं लहिय।-सुजान०, पृ०२०। भए । प्रभु बहु वार वाहु सिर हए । —मानस, ६।११। ५ नष्ट हय-सहा पुं० [सं०] [स्त्री० हया, हयो] १ घोडा । अश्व । २ कविता करना । न रहने देना। उ०-प्रीति प्रतीति रीति परिमिति मे सात की मात्रा सूचित करने का शब्द (उच्च श्रवा के सात पति हेतुवाद हठि हेरि हई है। --तुलसी (शब्द॰) । ४ तात्रिक अश्व का मारा गया था। 1