पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 11.djvu/८९

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स्वल्पतंत्र स्वर्णाभा ५४०१ स्वर्लोक-सया पुं० [म०] १ स्वर्ग । २ मेरु पर्वत का एक नाम विखराई थी भू पर मजुल मुक्तापलियां । लगी लूटने उन्हें प्रात मे दिनमणि की स्वर्णाम रश्मियां-ग्रामिका, पृ० १६ । (को०)। ३ देवता (फो०। रवर्णाभा-राजा सी० [स०] पीली जूही। स्वर्वधू-र --सशरी० [सं०] अमरा। स्वर्णारि-सहा पुं० [म०] १ गधक । २ मीमा नामक धातु । स्वर्वापी-सज्ञा पी० [मं०] गगा। स्वालु-र -सज्ञा पुं० [स०] एक क्षुप । सोनुली । विशेप दे० 'म्वर्ण ली'। स्वर्वारवामधू- मशास्त्री० [सं०] अपारा । म्वयंधू (को०] । स्वर्णाहा- [--सज्ञा स्त्री॰ [म०] स्वर्णक्षीरी । सत्यानाशी । भरभांड । स्वर्वासी-वि० [म.] वर्ग में रहनेवाला (देवता)। उ०-हाय स्वर्णिका--सशास्त्री० [स०] धनिया। घ्राण ही नही, तुझे दि होता, माम लह भी। प्रो स्वर्वागी अमर | मनुज गा निघिन होना तू भी।-सामधेनी, पृ० २२ । स्वर्णिम-वि० [म०] १ सुनहला। सोने जैसा। उ०--यधु, चाहता काा, तोउ दे हमे, छोड ककाल । यही देव की चाल, जगत स्वर्वाहिनी- सशा ग्नी० [स०] मदामिनी [को०] । स्वप्नों का स्वणिम जाल!--मधुज्वाल, पृ० १६ । २ मोने स्वर्विद् --मज्ञा पुं० [सं०] वह जो यज्ञ आदि करके म्वर्ग जाता हो। का (को०)। स्वर्वेश्या--सा स्रो० [सं०] अप्मत । स्वर्ण ली--सशा स्त्री० [स०] एक प्रकार का क्षुप जो सोनुली काह- स्ववैद्य-सज्ञा पुं० [स०] स्वर्ग के वैद्य, अश्विनीकुमार। लाता है। स्वर्हण-सज्ञा पुं० [स०] सम्यक् ममान । अत्यधिक प्रादर (को०] । विशेप--इसे हेमपुप्पी और स्वर्णपुप्पा भी कहते है। वैद्यक के स्वर्हत्-वि० [म०] जो बहुत समान्य हो किो० । अनुसार यह कटु, शीतल, कपाय और वणनाशक होता है। स्वलक्षण--सज्ञा पुं० [म०] विशेष लक्षण या तत्व । विगेपता [को०] । स्वर्णोपधातु-सज्ञा पु० [स०] सोनामवखी नामक उपधातु । स्वलिखित-वि० [स०] स्वय लिया हुअा [को०] । स्वती-सपा स्पी० [सं० म्वर्दन्तिन् ] स्वर्गलोक का हाथी । ऐरावत स्वलीन-सज्ञा पुं॰ [स०] पुराणानुसार एक दानव का नाम । आदि हाथी (को०] । स्वल्प-वि० [स०]१ बहुत थोडा । बहुत कम । जैसे,--स्वल्प मात्रा में स्वर्द-वि० [स०] स्वर्लोक देनेवाला । स्वर्ग देनेवाला (को०] । मकरध्वज देने मे भी बहुत लाभ होता है । उ०-(क) अतिथि स्वधुनी--सा सी० [सं०] स्वर्लोक की नदी, गगा। नपीश्वर शापन पाए शोक भयो जिय भारी। स्वल्प पाक ते तृप्त किए सव वठिन प्रापदा टारी ।--सूर (शन्द०)। (ख) स्वर्धेनु--मज्ञा स्त्री० [सं०] स्वर्गलोक की गाय, कामधेनु (को॰] । कल्प वर्ष भट चल्यो किए सकल्प विजय को । नमूभि अल्प बल स्वर्न-मज्ञा पुं० [सं० स्वर्ण] दे० 'स्वर्ण । परन स्वल्पह लेम न भय को।-गिरधन्दाम (शब्द०)। २ स्वर्नसैल- मशा पुं० [म० स्वर्णशैल] सोने का पर्वत । सुमेरु पर्वत । नगण्य । महत्वहीन। तुन्छ (को०)। ३ सक्षिप्त । लघु । उ.--स्वनंसल सकास कोटि रवि तरुन तेज घन । उर विशाल अल्प (को०) । ४ बहुत छोटा (को०)। भुजदड चड नरा बज्र बज्रतन ।-तुलसी ग्र०, पृ० २४६ । स्वल्प-सग पुं० नसी या हट्ट विलामिनी नामक गधद्रव्य । स्वर्नगरी-सग स्त्री० [सं०] स्वर्ग की पुरी, अमरावती। स्वल्पकक--सज्ञा पुं० [० स्यल्पकह] छोटी चील पक्षी की एक स्वर्नदी-राण बी० [सं०] स्वर्गगा जाति [को॰] । स्वर्पति-सज्ञा पुं० [म०] स्वर्ग के स्वामी, इद्र । स्वल्पकद-मा पुं० [सं० स्वल्पकन्द] कसेर । स्वर्भारण-ससा पुं० [स०] राहु (यो०] । स्वरपक-वि० [सं०] बहुत थोडा । बहुत कम या अत्यत लघु (को०] । स्वर्भानव-सपा पुं० [सं०] गोमेद मणि । राहु का रत्न । स्वल्पकाष्ठ-सवा पुं० [म०] मांख पालू । स्वर्भानु-राज्ञा पुं० [सं०] १ राहु । २ सत्य मामा के गर्भ से उत्पन्न स्वल्पकेशर--सक्षा पुं० [सं०] कचनार । श्रीकृष्ण के एक पुत्र का नाम । स्वल्पकेशरी--सरा पुं० [सं० स्थल शिरिन्] योपिदार T वृक्ष । यो०---स्वर्भानुसूदन = सूर्य का एक नाम । कचनार का पेट (को०] । स्वर्मणि--सा पुं० [सं०] अाकाश के मरिण । मुरिग । सूर्य [को०]। स्वल्पकेगी'--सा पुं० [सं० म्बन्पोनिन] भूत केश नामय पौधा । स्वर्मध्य--सा पुं० [म.] पासाग का मध्य माग । वमध्य को०) । स्वल्पकेगी-वि० जिम बहुत कम देश हो यो । स्वर्यात-वि० [सं०] मृत । मरा हुप्रा । स्वर्गत [को०] । स्वल्पघटा-सा सी० [म० न्य पघण्टा] गमन। स्वर्याता-वि० [मं० पर्यात] मुमएं । मरणासन्न (को०] । स्वल्पचटक-सया पुं० [मं०] गौरैया नामक पक्षी। स्वर्यान-सा पुं० [सं०] मृत्यु । मरण । मौन (को०) । स्वल्पजबुगत पुं० [स० चपनयुक] लोगी। स्वॉपित्--सपा पी० [सं०] अप्सग कि०] । म्वल्पतव-वि० [स० म्य-पत्र] जिनके प्रध्याय, तन या पर छाटे स्वीन--सज्ञा पुं० [सं०] एक प्रानी। जापरा नाम । छोटे हो ।