पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/११८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८२७ परनामी परदाज जहाँ से स्वर निकाला जाता है। १२ नाव की पाल । करनेवाला पक्षी । उ०-वर लोहा दीठो अंग रघुवर, परघर १३ जवनिका । रगमच का पर्दा । पडियो धरण पर ।-रघु० रू०, पृ० १४० । परधर्म-सञ्ज्ञा पुं॰ [स० ] दूसरे का धर्म [को०] । परदाज'-वि० [फा० परदाज़ ] १ सुसज्जित करनेवाला । २ पोषक [को०] । परधान-वि० [सं० प्रधान ] दे० 'प्रधान' । परदाज-सञ्ज्ञा पुं० १ सज्जा। सजावट । २. ढग । ३ सलग्नता। परधान-सज्ञा पुं० [स० परिधान ] दे० 'परिधान'। उ०—मथि तल्लीनता । ४ चित्र की बारीक रेखाएँ [को०] । मृगमद मलय कपूर सवनि के तिलक किए। उर मणिमाला पहिराय सब विचित्र ठए । दान मान परधान पूरण काम परदादा-सञ्ज्ञा पु० [सं० प्र+हिं० दादा ] [ सी० परदादी ] पितामह । दादा का बाप । पडदादा। किए। -सूर (शब्द०)। परदानशीन-वि० [फा०] परदे मे रहनेवाली। अत पुरवासिनी। परधाम-सञ्ज्ञा पुं॰ [सं० परधामन् ] १. वैकुठ घाम । परलोक । जैसे, परदानशीन औरत । २ ईश्वर । ३. विष्णु । उ०-अज सच्चिदानद परधामा ।- तुलसी (शब्द०)। परदार'-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [स० पर + दार ] १ लक्ष्मी । २ पृथ्वी । परध्यान-सञ्चा पु० [स] ध्यान का वह स्वरूप जिसमे ध्येय के उ०—पानंद के कद सुरपालक से बालक ये, परदार प्रिय अतिरिक्त और कोई भी नहीं रहता [को०] । साधु मन वच काय के।-राम च०, पृ० २१ । ३. दूसरे की स्त्री । पराई औरत । जैसे, परदाररत पराई स्त्री पर परन'-सज्ञा पु० [?] मृदग आदि बाजो को वजाते समय मुख्य बोलों के बीच बीच से बजाए जानेवाले बोलो के खड । अनुरक्त। उ०-आनंदघन रस रग घमड सो ललिता मृदग बजावति, परदार-सज्ञा पुं॰ [हिं० पहरेदार पहरा देनेवाला। पहरेदार । परन भरनि सी परति प्रावै गौहन ।-घनानद, पृ० ३४५ । पौरिया । उ०-परदार पौरि दस दस प्रमान । राजत अनेक भर सुभ्भि थान । -पृ० रा०, १९६६३ । रन-सञ्चा पु० [ स० प्रतिज्ञा, प्रा० पढिरणा, अथवा स० प्रण या परदारिक-वि० [स०] परस्त्री लपट । परस्त्रीगामी [को०] । पण ( = बाजी, शर्त ) ] प्रतिज्ञा । टेक । प्रण । वायदा । दृढ सकल्प । उ०—जब रहली जननी के प्रोदर, परन परदारी-वि॰ [ म० परदारिन् ] दे० 'परदारिक' [को०] । सम्हारल हो।-घरम०, पृ० ३५ । परदुम्म-सञ्ज्ञा पुं० [ स० प्रघुम्न ] दे॰ 'प्रद्युम्न'। उ०-तुम क्रि० प्र०-करना ।—बाँधना ।—होना । परदुम्म और अनरुघ दोऊ । तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ ।- जायसी (शब्द०)। परन-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पढ़ना, पढ़न ] पडी हुई । बान । पादत । परदूषण संधि-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० परदूपण सन्धि ] सपूर्ण राज्य की उ.-राखों हटकि उते को घावै उनकी वैसिय परन परी उत्पत्ति तथा फल देने की प्रतिज्ञा करके सघि करना ( का- री।--सूर (शब्द०)। मदक )। परन-सज्ञा पुं० [स० पर्ण ] दे० 'पण'। उ०—(क) पुनि परदेवता-सशा पुं० [म.] परब्रह्म [को०] । परिहरे सुखानेउ परना। -मानस, ११७४। (ख ) सो परदेश-सञ्ज्ञा पु० [सं०] विदेश । दूसरा देश । पराया शहर । उपजे हैं प्राय ये परन फुटी के द्वार ।-शकुतला, पृ०७६ । मुहा०-परदेश में छाना = दूसरे देश में निवास करना। घर यौ०-परनकुटी । परनगृह = दे० 'परनकुटी' । पर न रहना ( गीत ) । परनकुटी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० पर्णकुटो ] दे० 'पर्णकुटी' । उ०- परदेशापवाहन-सज्ञा पु० [ स० ] विदेशियो को बुलाकर उपनिवेश परनकुटी छावन चहौ महि देव तुम बल राई हो।-कवीर बसाना ( कौटिल्य )। सा०, पृ० २७ । परदेशी-वि० [ स०] विदेशी । दूसरे देश का । अन्य देश निवासी। परनॉम-सज्ञा पुं० [सं० प्रणाम] दे० 'प्रणाम'। उ०-करि ऊघो परदेस-सज्ञा पुं० [सं० परदेश ] दे० 'परदेश' । उ०—ता पाछे परनाममाए जसुमति नद पै।-पोद्दार अभि० ग्र०, पृ० ३५० । केतेक दिन को चाचा हरिबस जी गुजरात के परदेस को परना-क्रि० अ० [हिं० ] दे० 'पडना' । गए।-दो सौ वावन०, भा० १, पृ० २८६ । परनाना'-सज्ञा पुं० [ स० पर + हिं० नाना ] [स्त्री० परनानी ] परदोष-सक्षा पुं० [सं० प्रदोप ] दे० 'प्रदोष' । उ०-जेठ सुदी सातै नाना का बाप । परदोष की घरी घरी। पयामा०, पृ० १२६ । परनाना-क्रि० स० [स० परिणयन ] विवाह करना। ब्याहना। परदोस—सच्चा पु० [ स० प्रदोप ] दे० 'प्रदोष' । उ०-पुत्रन संग पुत्री परनाई। -कवीर श०, भा० १, परद्रोही-वि० [ स० परद्रोहिन् ] दूसरे से दुश्मनी रखनेवाला। पृ०६१। उ०-परद्रोही की होइ निसका। कामी पुनि कि रहहि परनानी-सज्ञा स्त्री० [हिं० परनाना ] नानी की मां। प्रकल का।-मानस,७।११२ । परनाम-सञ्ज्ञा पुं॰ [ स० प्रणाम ] दे॰ प्रणाम' । उ०-पैर छूकर परद्वपी-वि० [ स० परद्वेपिन् ] दे० 'परद्रोही' । जब परनाम करने लगा था तो मां जी एकदम फूट फूटकर परधन-सहा पु० [ स०] दूसरे की सपत्ति । रो पडी थी।-मैला०, पृ०३८ । परधर+-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० पर+हिं० धरना ] परो को धारण परनामी-सज्ञा पुं० [हिं० परनाम] प्राणनाथ के संप्रदाय का व्यक्ति ।