पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/११९

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परनाल २०२८ परपुष्ट दे० 'प्राणनाथी'। उ०-धामी एक दूसरे के अभिवादन में परपटी-सशा सी० [सं० पर्पटी ] दे० 'पपंटी'। परनाम कहते हैं-इसी कारण ये लोग परनामी भी कहलाते परपद-सञ्ज्ञा पुं० [म०] १ दे० 'परमपद' । २. पर अर्थात् शत्रु का हैं।-शुक्ल अभि० ग्र०, पृ० ८६ । स्थान । परराष्ट्र (को०)। परनाल-सज्ञा पुं० [हिं० परनाला] जहाज मे पेशाब करने की परपरा-वि० [अनु॰] चरपरा । मोरी ( लश )। परपराना-फि० अ० [दश०] मिचं प्रादि कढयी चीजो का जीभ या परनाला- सञ्ज्ञा पुं० [सं० प्रणाली ] [स्त्री० अल्पा० परनाली ] वह शरीर के और किसी भाग में एक विशेष प्रकार या उग्र मार्ग जिससे घर मे का मल या पानी बहकर बाहर निकलता संवेदन उत्पन्न करना । तीदरण लगना । चुनचुनाना। है। पनाला । नावदान । मोरी। परपराहट-सा सी० [हिं० परपराना + ग्राहट ( प्रत्य० ) ] पर- परनाली-सज्ञा स्त्री० [सं० प्रणाली ] १ छोटा परनाला । मोरी। पराने का भाव । घुनघुनाट । उ०-पाली तो कुच सैल ते नाभिकुड को जाय । रोमाली परपाकनिवृत्त-वि० [म०] जो दूसरे के उद्देश्य से भोजन न निकाले । न सिंगार की परनाली दरसाय ।-स० सप्तक, पृ० २५५ । पचयश न करनेवाला ( गृहस्थ )। २ अच्छे घोडों की पीठ का ( पुट्ठों और कधों की अपेक्षा ) विशेष-मिताक्षरा मे कहा है कि ऐसे मनुष्य का अन्न भोजन नीचापन जो उनकी तेजी प्रकट करता है। करनेवाले ग्राह्मण को प्रायश्चित्त करना चाहिए । क्रि० प्र०—करना। परपाकरत-वि० [सं०] जो स्वय पंचयश करके दूसरे का दिया अन्न परनि-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० पढ़ना, पडन ] पड़ी हुई वान । पादत । भोजन करके रहे। टेव । उ०-(क) सूरदास तैसहि ये लोचन का घौं परनि विशेप-मिताक्षरा के अनुसार ऐसे का अन्न भोजन करनेवाले परी री ।—सूर (शब्द०)। (ख ) ऐसी परनि परी री जाको लाज कहा ह है तिनको? - सूर (शब्द॰) । ग्राह्मण को प्रायश्चित्त करना चाहिए। परनिपात-सज्ञा पुं० [सं०] समास में वह शब्द जो पहले आने परपाजा-मग पुं० [सं० पर+पर+हि. श्राजा ] [ग्मी० परपाजी] योग्य हो पर वाद मे रखा जाय । पहले पाने योग्य शब्द का आजा या दादा का बाप । पितामह का पिता । प्रपितामह । बाद में रखना। जैसे, भूतपूर्व मे 'पूर्व' शब्द [को०] । परपार-सशा पुं० [सं०] उस अोर का तट । दूसरी तरफ का किनारा । परनील-संशा जी० [ स० परिणीया, परिणेया ] कन्या जो विवाह उ०-सील सुधा के मगार सुखमा के पारावार पावत न पर- पार पेरि परि थाके हैं।-तुलसी (शब्द०)। योग्य हो। परनी-सशा सी० [सं० पर्ण, हिं० परन ] रांगे का महीन पत्तर परपिंह-सञ्ज्ञा पुं० [सं० परपिण्ड ] पराया अन्न । परान्न (को०)। जिसमें सुनहली या रुपहली चमक होती है पौर जिसे सजावट परपिंडाद-सज्ञा पुं॰ [सं० परपिण्डाद ] १ परान्नोपजीवी। दूसरे के लिये चिपकाते हैं । पन्नी । का अन्न खाकर जीनेवाला । २ सेवक । नौकर (को०) । परनौतपु-सञ्चा सी० [स० प्रनमन, हिं० परनवना] प्रणति । परपीडक-वि० [सं०] १ दूसरे को पीडा या दुख पहुंचानेयाला । प्रणाम । नमस्कार । उ०- ताते तुमको करत दडौत । अरु २ पराई पीडा को समझनेवाला। दूसरे की दुख की ओर सव नरहूँ को परनौत ।-सूर ( शब्द०)। ध्यान देनेवाला। परपच -सज्ञा पुं० [सं० प्रपञ्च ] दे० 'प्रपच' । उ०-सुखदायक परपीरक-वि० [सं० परपीढक] दे० 'परपीडक'-२ । उ०-मागध दूती चतुर करि परपच वनाय । छरि जु निसातम सुवसु करि हति राजा सव छोरे ऐसे प्रभु परपोरक ।--सूर (शब्द॰) । नवलहि दई मिलाय।-स० सप्तक, पृ० २४० । परपुरजय-सज्ञा पुं॰ [म० परपुरञ्जय शत्रु के नगर को जीतनेवाला। परपंचक-वि० [स० प्रपञ्चक ] बखेडिया । फसादी। जालिया। वीर । विजेता [को०] । मायावी। परपुरप्रवेश-संशा पुं० [सं०] १ शत्रु के नगर में प्रवेश करना । परचिनि-वि० [हिं० परपची ] परपच करनेवाली। उ०- २ भाव को चुरानेवाले कवियो की एक रीति । उ०- परपचिनि तुम ग्वालि झूठ ही मोहि बुलायौ।-नद० ग्र०, भावापहरण की एक अन्य 'परपुरप्रयेश' नामक रीति है, पृ०१६८। जिसके भेद निम्नलिखित हैं ।-सपूर्णानद अभि० प्र०, पु० १६४। परपंची-वि० [स० प्रपञ्ची] १ बखेडिया। फसादी । २. धूर्त । मायावी। उ०-सव दल होह हुस्यार चलहु अब घेरहिं जाई । परपुरुष-सज्ञा पुं॰ [ स०] १ पति के अतिरिक्त अन्य पुरुष । २ परपची हैं कान्ह कछू मति करे ढिठाई ।-सूर (शब्द॰) । परम पुरुष । विष्णु । ३ अनजाना व्यक्ति । अजनवी । परपक्ष-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ विरुद्ध पक्ष । विरोधियों का दल । परपुष्ट'-वि० [सं०] अन्य द्वारा पोषित । जिसका दूसरे ने पोषण २. विपक्षी की बात । मत का विरोध करनेवाले की बात । किया हो। परपट-सज्ञा पुं० [हिं० पर+स० पट (= चादर)] चौरस मैदान । परपुष्ट-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] कोकिल । कोयल। समतल भूमि । विशेष-याहते हैं, कोयल कौए के अडे को हटाकर अपना प्रहा