पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१२०

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परपुष्टमहोत्सव २८२३ परभंजन उसके नीड में रख देती है। कोयल के उस बच्चे को कौमा परबला-सञ्ज्ञा पु० [हिं०] दे० 'परवल'। अपना बच्चा समझ पालता है। परबस-सञ्ज्ञा पु०, वि० [म० परवश] 70 'परवश' । उ०-मन ही परपुष्टमहोत्सव सशा पु० [सं०] पाम का पेड ( जिससे कोयल मन मुरझाय रहति हो तन परवस गुरजन की घेरी।- को वडा पानद होता है)। घनानद, पृ० ४२८ । परपुष्टा- सज्ञा स्त्री॰ [सं०] १ पराश्रया । वेश्या । २ परगाछा । परबसताई-सज्ञा स्त्री० [म० परवश्यता + ई ( प्रत्य० ) ] परा- वांदा । बदाक। धीनता । परतता। उ०-हरि विरचि हर हेरि राम प्रेम परपूठा-पि० [ म० परिपुष्ट, प्रा० परिपुठ्ठ ] पक्का । उ० परबसताई। सुख समाज रघुराज के बरनत विसुद्ध मन कविरा तहाँ न जाइए जहाँ कपट को चित्त । परपूठा अवगुन मुरनि सुमन झरि लाई । —तुलसी ( शब्द०)। घना मुहडे ऊपर मित्त ।-कबीर (शब्द॰) । परवाना-सशा जी० [फा० परवाज ] दे॰ 'परवाज'। उ०-देखो परपूर्वा -सज्ञा 'पी' [ मं० ] वह स्त्री जो अपने पहले पति को छोड उस वादशाह के नयन के बाज । मोहन के रूप के तोती पर दूसरा पति करे। परवाज ।-दक्खिनी०, पृ० ३१४ । विशेष-क्षता और अक्षता दो प्रकार की परपूर्वा कही गई हैं। परबाल-सञ्ज्ञा पु० [हिं० पर (= दूसरा) + बाल (= रोयाँ )] नारद ने सात भेद बतलाए हैं-तीन प्रकार की पुनर्मू और अखि की पलक पर वह फालतू निकला हुआ बाल या विरनी चार प्रकार की स्वैरिणी। जिसके कारण बहुत पीडा होती है। परपैठ-सज्ञा स्त्री० [हिं० पर ( = दूसरा ) +पैठ ( = बाजार )] परयाल@-सज्ञा पुं० [सं० प्रवाल ] दे० 'प्रवाल' । हुसी की तीसरी नकल । हुडी की तीसरी प्रतिलिपि । परवाल-सा खी० [म० परवाला ] परस्पी। परकीया नायिका । परपोता-शा पुं० [म० प्रपौत्र] पोते का वेटा । पुत्र के पुत्र का पुत्र । उ.-पी चूमे परवाल लखि वालहि गुरुजन साथ । कचनि परपौत्र-तश पुं० [स०] प्रपौत्र का पुत्र । पोते के बेटे का बेटा । परसि, बाहूँ धरे कुचनि खरे पर हाथ । -स० सप्तक, परप्रपौत्र--प्रज्ञा पुं॰ [मं०] दे० 'परपौत्र' । पृ० २७४ । परप्रेष्य-संज्ञा पुं० [सं०] [ स्त्री० परप्रेप्या ] दास । सेवक । नौकर । परवास@-सशा ० [सं० प्रवास ] दे० 'प्रवास' । परप्रेष्या-सज्ञा स्त्री० [ स०] दासी । नौकरानी । सेविका (को०] । परवी-संज्ञा स्त्री॰ [ स० पर्वन् ] १ पर्व का दिन । उत्सव का दिन । परफुल्ल-वि॰ [ मं० प्रफुल्ल ] दे० 'प्रफुल्ल' । पुण्यकाल । उ०—ऐसी परवी पाय नहीं तुम महिमा जानी। परफुल्लित-वि० [स० प्रफुल्ल + इत (प्रत्य०) ] दे० 'प्रफुल्ल' । -पलट्स०, पृ० १६। ३ त्यौहारी। पर्व पर प्राप्त धन श्रादि । परवचन-सशा स्त्री० [सं० प्रवञ्चना ] दे॰ 'प्रवचना'। परवीन-वि० [ मं० प्रवीण ] दे० 'प्रवीण' । उ०-सदा रूप गुन परवंद-संज्ञा पुं० [ स० परवन्ध ] नाच की एक गत जिसमे दोनो पैर रीझि पिय जाके रहे अधीन । स्वाधीन पतिका तिये वरनत इस प्रकार खडे रखते हैं कि कमर पर दोनो कुहनियां सटी कवि परवीन ।-मति ग्र०, पृ० ३०६ । रहती है। परवेष-सज्ञा पु० [म० परिवेष ] ', 'परिवेष' । उ०-पूरन परवंध-सज्ञा पुं० [सं० प्रबन्ध ] दे० 'प्रवध' । चद पियूष मयूष मनो, परवेस की रेख विराजै। -मति. परव'-सा पुं० [सं० पर्वन् ] दे० 'पर्व' । उ०-राम तिलक हित ग्र०, पृ० ३४६ । मंगल साजा । परव जोग जनु जुरेउ समाजा।-मानस, परवेस–सशा पुं० [ स० प्रवेश ] दे० 'प्रवेश'। १॥४१ । परयोध-सशा पु० [म० प्रवोध ] द 'प्रबोध'। परब-सज्ञा स्त्री० [सं० पर्व ( = पोर, खड) ] किसी रत्न वा परवोधना@-क्रि० स० [ स० प्रबोधन ] १ जगाना । २ ज्ञानो- जवाहिर का छोटा टुकडा। पदेश करना। ३. प्रबोध देना। दिलासा देना। तसल्ली परवत-सज्ञा पुं० [ स० पर्वत ] २० 'पर्वत' । उ०-परवत मे कदरा, देना । ढाढ़स बंधाना । ममझाना। उ०-पुनि यह कहा मोहि तह! किन्नर सु विराजे । -पृ० रा०, ११३८६ । परवोधत घरनि गिरी मुरझया ।-सूर । ( शब्द०)। परवता-मञ्चा पुं॰ [ म० पर्वत ] दे० 'परवत्ता' । पर्वती सुग्गा । परब्यत-सञ्ज्ञा पु० [म० पर्वत] दे० 'पर्वन' । उ०—मानो प्रतच्छ उ०-राजा चला संवरि सो लता। परवत कह जो चला परब्बत की नभ लीक लसी कपि यो घुकि धायो।-तुलसी परवता । —जायसी ग्र०, पृ०६६। ग्र०, पृ० १६६। परबत्ता-सज्ञा पुं० [स० पर्वत ] पहाडी तोता या सुग्गा जो देशो परब्रह्म-मशा पु० [स०] ब्रह्म जो जगत से परे है। निर्गुण तोते से वडा होता है और जिसके दोनो डैनो पर लाल दाग होते हैं । करमेल। परभजन-सशा पु० [म. प्रभजन ] दे० 'प्रभजन'। उ०-- परबल-वि० [म. प्रथल ] दे० 'प्रवल' । उ०-पाँच जने सहित परभजन की गति घरे अवर विराज प्रगटावै तिय तन परवल परपची उलटि परे बदीखाने ।-घरनी०, पृ० १४ ।, काम।-पोद्धार अभि० म०, पृ०४८६ । ६-१४ निरुपाधि ब्रह्म।