पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परमारथ २८३४ परमृत्यु अनेक पडित थे। इसने दक्षिण के कर्णाट, लाट, केरल, परमारथ स्वाग्थ सुस सारे । भरत न सपनेहुँ मन? निहारे । चोल श्रादि अनेक देशो को जय किया। प्रवचितामणि में -मानस, २।२८८ लिखा है कि वाक्पतिराज ने चालुक्य राज द्वितीय तैलप को परमारथवादी-[हिं०] २० 'परमार्थवादी' । उ०-प्रमु जे मुनि पर सोलह बार हराया, पर अत में एक चढ़ाई मे उसके यहाँ मारथवादी। कहहिं राम का? ग्रह्म अनादी । -मानम, ११०८। वदी हो गया और वही उसकी मृत्यु हुई। चालुक्य राजाओं परमारथी-वि० [सं० परमार्थी ] दे० 'परमार्थी' । उ०-(क) के शिलालेखो मे भी इस बात का उल्लेख मिलता है। एहि जग जामिनि जागहि जोगी। परमारयो प्रपच थियोगी। मुज के उपरात उसका छोटा भाई सिंधुराज या सिंघुल गद्दी -मानस, २।६३ । (ख) नमो प्रेम परमारयो इह जाचन हैं पर बैठा। इसकी एक उपाधि 'नवसाहसाक' भी थी। तोहि । नदलाल के चरन को दे मिलाइ किन मोहि । -स० 'नवसाहसाकचरित' मे 'पम गुप्त' ने इसी का वृत्तात लिखा सप्तक, पृ० १७३। है। सिंघु राज का पुत्र महाप्रतापी विद्वान् और दानी भोज परमार्थ-पज्ञा पुं० [०] १ उत्कृष्ट पदार्थ । सबसे बढ़कर वस्तु । हुआ, जिसका नाम भारत मे घर घर प्रसिद्ध है । उदयपुर २ सार वस्तु । वास्तव सत्ता । नाम रूपादि से परे ययार्य प्रशस्ति मे लिखा है कि भोज ने गुर्जर, लाट, कर्णाट, तुरुष्क तत्व । ३. मोक्ष । ४ दुःस का सर्वया प्रभावरूप सुस(न्याय) । आदि अनेक देशो पर चढ़ाई की। भोज ने कल्याण के चालुक्य ५ सत्य (को०) दे० । ६ वह्म (को०)। राजा तृतीय जयसिंह पर भी चढाई की थी । पर जान पडता परमार्थता-सा ग्री० [सं०] सत्य भाव । यापाय्यं । है कि इसमे उसे सफलता नहीं हुई । 'विल्हण' के विक्रमांकदेव- परमार्थवादी-ससा पुं० [सं० परमार्थवादिन् ] शानी । वेदाती । चरित' मे लिखा है कि जयसिंह के उत्तराधिकारी चालुक्य राज तत्वन। सोमेश्वर (द्वितीय ) ने भोज की राजधानी धारा नगरी पर परमार्थविद्-१० [ स० ] ग्रह्मज्ञानसपन्न । जिसे परमार्थ का ज्ञान चढाई की मोर भोज को भागना पडा। 'प्रवंधचिंतामणि' तथा हो [को०] । नागपुर की प्रशस्ति मे भी लिखा है कि चेदिराज कर्ण और गुर्जरराज चालुक्य भीम ने मिलकर भोज पर चढाई परमार्थी-वि० [सं० परमाथिन् ] १ यथार्थ तत्व को दूदनेवाला । की, जिससे भोज का अघ पतन हुआ। भोज की मृत्यु कव तत्वजिज्ञासु । २ मोक्ष चाहनेवाला । मुमुक्षु । हुई, यह ठीक नहीं मालूम । पर इतना अवश्य पता चलता हैं परमाह-सया पुं० [सं०] शुभ दिन । पुण्य दिवस । अच्दा दिन । कि ६६४ शक (सन् १०४२-४३ ई० ) तक वह विद्यमान उ.-मरन ठानि परमाह मरजी वाकी घारि मत । -नट०, था। राजतरगिणी में लिखा है कि काश्मीरपति 'कलस' पृ० १०० । और मालवाधिप 'भोज' दोनो कयि घे और एक ही समय परमिति-उरा सी० [म० परिमिति ] दे॰ 'परिमिति' । उ०- में वर्तमान थे। इससे जान पडता है कि सन् १०६२ ई० के सतगुन सुर गन भव मद्विति सी। रघुवर भगति प्रेम कुछ काल पीछे ही उसकी मृत्यु हुई होगी। भोज के पीछे परमिति सी ।-मानस, १२३१ । उदयादित्य का नाम मिलता है, जिसने धारा नगरी को परमिश्रा सच्चा सी० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह मुक्ति या राज्य शत्रुप्रो के हाथ से निकाला और घरणीवराह के मदिर की जिसमें मित्र पौर शत्रु दोनो समान रूप से हो । मरम्मत कराई । इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं । परमीकरणमुद्रा-सा सी० [सं०] तत्र के अनुसार देवताओं के भूपाल ( भोपाल ) मे प्राप्त उदयवर्म के ताम्रपत्र तथा पिपलिया माह्वान की एक मुद्रा, जिसमे हाप के दोनो अंगूठो को के ताम्रपत्र मे ये नाम और मिलते हैं-भोजवशीय भहाराज एक में गांठकर उँगलियो को फैलाते हैं। इसे महामुद्रा भी यशोवर्मदेव, उसका पुत्र जयधर्मदेव, उसके पीछे महाकुमार कहते हैं। लक्ष्मीवर्मदेव, उसके पीछे हरिश्चद्र का पुत्र उदयवर्मदेव परमुखg'- वि० [सं० पराइ मुख ] १. विमुख । पीछे फिरा पिछले दोनो कुमार भोजवशीय थे या नहीं, यह नहीं हुमा । २. जो ध्यान न दे। जो प्रतिकूल पाचरण करे। कहा जा सकता । जान पडता है, ये सामत राजा थे जो परमुखार-सज्ञा पुं॰ [सं० पर + मुख ] एक प्रकार की काव्य जयवर्मदेव के बहुत पीछे हुए। उक्ति जिसमें वर्णनीय का मन्य पुरुष के वचनों से वर्णन कराया जाय । -रघु० रू०, पृ० ३८ । अवध में 'भुकसा' नाम के कुछ क्षत्रिय हैं जो अपने को भोजवशी परमुखापेक्षिता-सशा सी० [सं०] पूसरे का मुंह देखने की वृत्ति । बतलाते हैं । उनका कहना है कि भोज के पीछे उदयादित्य किसी अन्य के भरोसे रहने का स्वभाव । उ०-पाचरणा- निविघ्न राज नहीं कर पाया । उसके भाई जगत्राव ने उसे त्मक जगत् की परमुखापेक्षिता वाली प्रवृत्ति को प्रेमचद निकाल दिया और वह कुछ अनुचरो और पुरोहितो के साथ जी की प्रतिभा ने मोह अवश्य दिया है। -प्रेम. पौर वनवास नाम के गांव में था वसा । उसी के वंश के ये गोर्की, पृ० १६७। भुकसा क्षत्रिय हैं। परमृत्यु-सज्ञा पुं० [सं०] काक । कौमा। परमारथ-सचा पुं० [ स० परमार्थ ] ८० 'परमार्थ' । उ० विशेष-प्रवाद है कि कौए मापसे पाप नहीं मरते ।