पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१२८

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परवान २८९७ परशुराम मुहा०-परवान चढ़ना = (१) पूरी प्रायु तक पहुँचना। सब परवाहना-क्रि० स० [हिं० परवाह ] प्रवाह करना। वहाना । सुखों का पूरा भोग करना। जैसे, फले फूले परवान चढे उ०-या महाराणी उच्चरे, सुहडा तजौ सचीत । परवाही स्त्रि. माशीर्वाद ) । २ विवाहित होना। ब्याहने खगधार दे जमणा घार प्रवीत ।-रा० रू०, पृ० ३० । जाना (स्त्रि०)। परवी-सज्ञा स्त्री० [म० पर्विणी पर्व काल । पुण्य काल । परवानर-सजा पु० [हिं० पाल, फा० बादवान ] जहाज का पाल । पविणी। उ०-परवी पर वरत वा होई। तेहि दिन मैथुन बादवान । करे जो कोई । —विश्राम० (शब्द०)। परवानगी-सज्ञा स्त्री॰ [फा०] इजाजत । आज्ञा । अनुमति । परवीन-वि० [म० प्रवीण ] द० 'प्रवीण' । उ०-पहुपावति उ०-तब वा लाछाबाई ने बाजवहादुर को परवानगी परवीन अति वचनु मानि मनु लीन ।-रसरतन, पृ० ५६ । दीनी।-दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५६ । परवृढ-सञ्ज्ञा पु० [ स० परिवृढ ] स्वामी। सरदार । उ०-नर परवानना-कि० अ० [स० प्रमाण ] प्रमाण मानना । ठीक नामन तें पति जुरे, परवृढ इन ईसान । भू भुज, घरनीकत, समझना । उ०-हमरे कहत न जो तुम मानहु । जो वह कहै विभु, नरपति, ईस, सुजान ।-नद, ग्र०, पृ० १०८ । सोइ परवानहु । —जायसी (शब्द०)। परवेख-सज्ञा पुं॰ [सं० परिवेप ] बहुत हलकी बदली के बीच परवाना-सञ्ज्ञा पुं० [फा० परवान ] १ प्राज्ञापत्र । दिखाई पडनेवाला चद्रमा के चारो ओर पडा हुया घेरा। यौ०-परवाने नवीस = परवाना लेखक । मडल । चाँद की प्रथाई । उ०—सारी सहित किनारी मुस २ फतिंगा । पखी। पतग । ३ वह जो पासक्त हो। आशिक छवि देख । मनहुँ शरद निशि चहुँ दिशि दुति परवेख ।- (को०)। ४- कुत्ते के वरावर एक जंतु जो सिंह के आगे आगे रहीम (शब्द०)। चलता है (को०)। परवेश-सज्ञा पुं० [ स० प्रवेश ] दे० 'प्रवेश' । परवान्-वि० [ स० परवत् ] १ दूसरे के आश्रित । पराधीन । २ परवेश्म-सशा पु० [स०] स्वर्ग । निस्सहाय । असहाय । निराश्रित [को०] । परवेस-सच्चा पु० [ सं० प्रवेश, हि० परवेश ] दे० 'प्रवेश' । उ०- परवाया-सज्ञा पु० [हिं० पैर+पाया ] चारपाई के पायो के नीचे वह नहिं चद वहाँ नहिं सूरज, नाहिं पवन परवेस । -कवीर रखने की चीज । श०, भा० ३, पृ०४। परवार-सशा पु० [सं० परिवार ] दे० 'परिवार'। उ०- परव्रत-तशा पुं० [म०] धृतराष्ट्र । परगह सह परवार अरी सहमार उडाएँ । सुरगण ग्रदप सुपह परश-सज्ञा पुं० [स०] स्पर्शमणि । पारस पत्थर । डहै बंध तासु छुडाएँ।-रघु० रू०, पृ० ४८ । परवास'-सञ्ज्ञा पु० [ म० प्रवास ] दे० 'प्रवास' । उ०—सव परवास परश-एचा पुं० [ स० स्पर्श ] स्पर्श । छूना। निरतर खेलहि, जहं जस तहां समाया। जग० वानी, परशाला-सज्ञा पुं० [सं०] परगाछा । बांदा। पृ० १७। परशु-सज्ञा पुं॰ [सं०] एक अस्त्र जिसमे एक डडे के सिरे पर एक परवास-सञ्ज्ञा पुं० [स० वास ] पाच्छादन । उ०-कपडसार अर्घचद्राकार लोहे का फ्ल लगा रहता है। एक प्रकार की सूची सहस बाँधि बचन परवास । किय दुराउ यह चतुरी गो कुल्हाडी जो पहले लडाई मे काम माती थी। तवर । सठ तुलसीदास । —तुलसी (शब्द॰) । भलुवा। परवाल-सक्षा पुं० [सं० प्रवाल ] दे॰ 'प्रवाल' । परशुधर-सचा पु० [सं०] १ परशु पारण करनेवाला। २ परवासिका-सज्ञा रसी० [सं०] बांदा । बदाक । परगाथा । परशुराम । ३ गणेश । गणपति (को॰) । परवासिनो-सशा स्त्री० [सं०] दे॰ 'परवासिका' । परशुपलाश-सज्ञा पुं॰ [ स०] फरसे का फल या अगला हिरमा। परवाह-सज्ञा स्त्री० [फा० परवा] १ चिता। व्यग्रता खटका। परशु की धार [को०] । प्राशका । उ०—चित्र के से लिखे दोऊ ठाठे रहे कासीराम, परशुमुद्रा- सझा ग्री० [ स०] उँगलियो की एक मुद्रा । नाही परवाह लोग लाख करो लरिबो। -काशीराम परशुराम-सज्ञा पुं॰ [ स०] जमदग्नि ऋपि के एक पुत्र जिन्होने (शब्द॰) । २ घ्यान । स्याल । किसी बात को भोर चित्त २१ बार क्षपियो का नाश किया था। ये ईश्वर के छठे देना। ३ आसरा। भरोसा । उ०—जग में गति जाहि अवतार माने जाते हैं । 'परशु' इनका मुख्य शस्त्र था, इसी से जगत्पति की परवाह सो ताहि कहा नर की।-तुलसी यह नाम पडा। (शब्द॰) । विशेप-महाभारत के शातिपर्व में इनकी उत्पत्ति फे नबध में परवाह-शा पुं० [ स० प्रवाह ] वहने का भाव । यह कथा लिखी है, कुशिक पर प्रसन्न होर उनके यहाँ मुहा०-परवाह करना = बहाना। धारा मे छोडना। जैसे,- गाधि नाम से उत्पन्न हुए । गाघि को सत्यवती नाम की एक इन मुर्दे को परवाह कर दो। पन्या हुई जिसे उन्होने भृगु के पुत्र ऋचीर को व्याहा । ६-१५