पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१२७

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कोमा । परवंचना २०३६ परवान परवंचना-सञ्चा बी० [सं० प्रवञ्चना ] दे० 'प्रवंचना' । उ० परवश्य-वि० [सं०] जो दूसरे के वश मे हो । पराधीन । विद्या लों सोल्यो भलो जिन परवचन ज्ञान ।-शकु तला, परवश्यता-मग पी० [ ] पगधीनता । पृ०६६। परवस्ती-सग रखी० [फा० परवरिश ] द० 'परवरिश'। परवक्तव्यपण्य-सज्ञा पु० [ स० ] वह माल जिसका सौदा दूसरे परवा'-सज्ञा पुं० [सं० पुट वा पूर, हि० पुर, पुरया ] [ी अल्पा० के साथ हो चुका हो। परई ] मिट्टी का बना हुया कटोरे के प्राचार का बरतन । विशेष-ऐसा सौदा पिसी दूसरे ग्राहक के हाथ बेचनेवालों के लिये कौटिल्य और स्मृतिकारो ने दड का विधान परवा - मशा पी० [सं० प्रतिपदा, प्रा० पदिवा ] पक्ष की पहली किया है। तिथि । पउवा । परिया। परवर'-सज्ञा पुं० [ मे० पटोल ] परवल । परवाना पी० [फा०] १ चिता । व्यग्रता । पटका । पाशका । परवर-सञ्ज्ञा पु० [सं०] अाँख का एक रोग । जैसे, (क) उाको धमकी की मुझे पवा नहीं है । परवर-सज्ञा पुं॰ [सं० प्रवर ] दे० 'प्रवर'। (स) तुम मेरा नाथ न दोगे तो कुछ परवा नहीं। २ ध्यान । ख्याल । किसी बात को ओर दतचित्त होने या भाव। परवर-वि० [फा० ] पालन करनेवाला । पोपण करनेवाला । जैसे, जैसे—(क) तुम उस लड़के को पढाई लिगाई की फुछ परवा परवरदिगार, गरीवपरवर मादि [फो०] । नहीं रखते । (स) उसे इतना लोग समझाते हैं पर वह कुछ परवरदा-वि० [फा० परवर्दह् ] पालित । पोपित । उ०-दांव सू परवा नहीं करता। ३ पासरा । भरोसा। जैने,-जिसके मेरे हुए हैं वादशाह, साया परवरदा हैं मेरे सब मुलूक । घर में सब कुछ है उसे दूसरे की क्या परवा । -दक्खिनो०, पृ० १८६ । क्रि० प्र०—करना ।-होना। परवरदिगार-मश पु० [ फा०] १ पालन करनेवाला। पोपण परवा - पी० [देश॰] एक प्रकार को पान । करनेवाला। २ ईश्वर । परवाई-सक्षा झी० [फा० परवाह ] २० 'परवा' या 'परवाह' । परवरिश-सज्ञा स्त्री॰ [फा० ] पालन । पोषण । परवाच्य-० [सं०] जिसे दूसरे बुरा कहते हो । निदित । परवर्त-वि० [सं० प्रवर्तित ] प्रतिष्ठित [को०] । परषाज-सज्ञा जी० [फा० परवाज ] उठान । उ०-सतलोक परवर्ती-वि॰ [ स० परवचिन् ] बाद मे होनेवाला । पश्चाद्वर्ती । सिधार साय सतसाज । उस वक्त करे चुलद परवाज।- उ०-यदि मैंने अतिम बार मां का मुख न देखा होता तो कबीर म०, पृ. १४६ । २ नाज । घमड (को०)। सभवत मेरा परवर्ती जीवन ऐसा विषाक्त न हुआ होता ।- परवाज-वि०१ उडनेवाला । २ घमडी। मिट्ट, । (समासात पर्दे०, पृ० ३१ । में प्रयुक्त)। परवल-सञ्ज्ञा पु० [ स० पटोल ] १. एक लता जो टट्टियो पर चढाई परवाजी+-सा सी० [फा०] उडान (को०] । जाती है और जिसके फलो की तरकारी होती है। परवाणि-सचा पु० [२०] १ धर्माध्यक्ष । २ वत्सर । , कात्तिकेय विशेष-यह सारे उत्तरीय भारत में पजाव से लेकर बगाल का वाहन, मयूर। आसाम तक होती है। पूरब में पान के भीटो पर परवल परवाणि २-मज्ञा पुं० [सं० प्रमाण ] ० 'प्रमारण'। उ०- की वेलें चढ़ाई जाती हैं। फल चार पाँच प्रगुल लवे और एक अक्षर पीव का, सोई नत करि जाणि । राम नाम दोनों सिरो की और पतले या नुकीले होते हैं । फलो के भीतर सतगुरु कह्या, दाटू सो परवाणि ।-दाटू०, पृ० ३२ । गूदे के बीच गोल बीजो की कई पक्तियाँ होती हैं। परवल परवाद-सज्ञा पुं० [मं०] १ विरोधात्मक उत्तर । २ परनिंदा । की तरकारी पथ्य मानी जाती है और ज्वर के रोगियो को ३ प्रवाद । अफवाह [को०। दी जाती है। वैद्यक मे परवल के फल कटु, तिक्त, पाचन, दीपन, हृद्य, वृष्य, उष्ण, सारक तथा, कफ, पित्त, ज्वर, परवादी-सज्ञा पुं॰ [सं० परवादिन् ] वह जो परवाद करे [फो०] । दाह को हटानेवाले माने जाते हैं । जड विरेचक और परवान-संज्ञा पुं॰ [सं० प्रमाण ] १ प्रमाण । नबूत । उ०- पत्ते तिक्त और पित्तनाशक कहे गए हैं। हमारे कहत रहै नहिं मानू । जो वह व है सोइ परवानू ।- पर्या-कुलक । तिक्तक । पटु । कर्कशफल । कुलज । वाजि पदमावत, पृ० २५६ । २ यथार्थ बात । सत्य वात। ३. मान । लताफल । राजफल । वरतिक्त। अमृताफल । कटु- सीमा। मिति । अवधि । हद । उ०-(क) तपवल तेहि फल । राजनाम । बीजगर्भ । नागफल । कुष्ठारि । कासमर्दन । करि पापु समाना। रखिहाँ इहाँ वरस परवाना ।- ज्योत्स्नी । कच्छुघ्नी । तुलसी (शब्द॰) । (ख) नौ लख जल के जीव वखानी। चतुर लक्ष पक्षी परवानी। कबीर सा०, पृ० ३७ । २. चिचडा जिसके फलों की तरकारी होती है। विशेष-स अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग प्राय अव्ययवत् परवश-वि० [सं०] जो दूसरे वश मे हो । पराधीन । स रहता है।