सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परस्त्री २८४० परराफ परस्त्री-पशा ग्मी॰ [ म०] पराई स्त्री । परकीया। परांगद-पया पुं० [सं० परामद ] शिव । परस्त्रीगमन-सज्ञा पुं० [सं०] पराई स्त्री से साथ सभोग । परांगव-मरा पुं० [सं० पराजय ] समुद्र । परस्पर-क्रि० वि० [ स०] एक दूसरे के साय । अापस मे । जैसे परांधा-सज्ञा पुं॰ [फा० प्राँच ] १ तन्ना। पटरी । २ नम्तो की (क), उनमे परस्पर बडी प्रीति है। (ख) यह तो परस्पर पाटन जो अासपास के तल मे कैचाई पर हो और जिगपर का व्यवहार है। उठ बैठ सकते हों। पाटन । ३ वेश। परस्परज्ञ-शा पु० [सं०] एक दूसरे को जाननेवाला । मित्र । परांज-पहा पु० [सं० पराज] १ तेल निकालने या यत्र । कोल्ह। सखा को०)। २ फेन । ३ छुरी का फल । परस्परापेक्ष्य-वि० [ स०] एक दूसरे की अपेक्षा रसनेवाला। परांजन-मा पु० [M० पराञ्जन ] द 'पगंग'। अन्योन्याश्रित । उ०—किंतु बहुत से परस्परापेक्ष्य भौर इद्रिय- परांचा-सशा पुं० [ लश० ? ] एक प्रकार पी गम चौटी पौर ग्राह्य होते है। -सपूर्णानद अभि० ग्र०, पृ० ३३२ । लवी नाय। परस्परोपमा-सज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्यालकार जिसमें उपमान परांठा-राशा पुं० [हिं० पलटना ] घी लगाकर तये पर रॉकी हुई की उपमा उपमेय को और उपमेय की उपमा उपमान को चपाती। दी जाती है। इसे 'उपमेयोपमा' भी कहते हैं । परा'-तरा रसी० [म०] १ घार प्रकार की वारिणयों में पहली वाणी परस्वघ-पशा पुं० [सं० ] दे० 'परश्वघ' [को०] । जो नादस्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी जाती परहरना-क्रि० स० [स० परि + हरण ] परित्याग करना । है। २ वह विद्या जो ऐमी वस्तु पा ज्ञान कराती है जो सय छोडना । उ०-(क) घट की मानि अनीति सब मन की गोचर पदार्यों से परे हो । ग्रहा विद्या। उपनिपद् विद्या । ३ मेटि उपाधि । दादू परहर पचकी, राम कहें ते साध ।- एक प्रकार का सामगान । ४ एक नदी का नाम । ५ गगा। दादू०, पृ० ४१० । (ख) भक्ति छुटावै निगुरा करई । कहे ६ बोझ करोटा । वघ्या कॉटवी। कहाए जो परहरई।-विश्राम (शब्द॰) । परा-वि० पी० [मं०] १ जो सबसे परे हो। २ श्रेष्ठ । उत्तम । परहार-सहा पु० [हिं०] १ दे० 'प्रहार' । २. दे० 'परिहार'। परा-सा पुं० [हिं० पारना ] रेशम गोलनेवालो का लबटी का परहारनाg-क्रि० स० [हिं० परिहार ] द० 'परहरना'। उ०- बारह पौदह मगुल लवा एक प्रौजार । हरष शोक दोक परहारे । होय मगन गुरु चरण धारे।- परा-सचा पुं० [फा० पर्रह ? ] पक्ति । कतार । दे० 'परी' । कवीर सा०, पृ० ८७४। उ०-राजकुमार कला दरसावत पावत परम प्रसमा । मखा परहारी-सज्ञा पुं॰ [ स० प्रहरी ] जगन्नाथ जी के मदिर के पुजारी प्रमोदित परा मिलायत जहँ रघुकुल भवतसा ।-रघुराज जो मदिर ही मे रहते हैं। (शब्द०)। परहास -सञ्श पुं० [श०] डिंगल के सारणोर गीत का एक भेद । परा"-उप० [मे०] सस्कृत का एक उपनगं जो पर्थ मे प्रातिलोम्य, इसे प्रहास भी कहते हैं।-रघु० रू०, पृ० ५१ । प्राभिमुल्य, धर्षण, प्राधान्य, विक्रम, स्वातत्र्य, गमन, घातन परहेज-सज्ञा पुं॰ [ फा० परहेज ] १ स्वास्थ्प को हानि पहुंचाने आदि विशेषताएँ व्यक्त करता है। जैसे, पराहत, परागत, वाली बातों से बचना । रोग उत्पन्न करनेवाली या वढानेवाली पराधीन, पराकात, पराजित प्रादि [को०] । वस्तुमो का त्याग । खाने पीने प्रादि का सयम । जैसे,—वह पराभणा-वि० [सं० परायण ] दे० 'परावण' । उ०-कित्ति सद्ध परहेज नहीं करता, दवा क्या फायदा करे ? २. दुरी वातो सूर सगाम, धम्म परापण हिग्रम, विपमाम्म नहु दीन से बचने का नियम । दोपो और बुराइयों से दूर रहना। जपद ।-कीति०, पृ०६ । क्रि० प्र०—करना ।-से रहना ।—होना । पराइण-वि० [सं० परायण ] लीन । निमग्न । परायण । उ०- परहेजगार-सञ्ज्ञा पुं॰ [फा० परहेजगार ] १ परहेज करनेवाला । दादू जुरा काल जम्मण मरण, जहाँ जहाँ जिव जाइ । सयमी । कुपथ्य न करनेवाला । २ वुराइयो से बचनेवाला । भगति पराइण लीन मन, ताको काल न साह ।-दादू०, दोपो से दूर रहनेवाला। पृ० ४०४। परहेजगारी-मज्ञा स्त्री॰ [ फा० परहेजगारी ] १ परहेज करने का पराई-वि० सी० [हिं० पराया ] पन्य की। दूसरे की । उ०-(क) काम । सयम । २ दोपो और बुराइयो का त्याग । बिनु जोवन भइ पास पराई। कहा सो पूत सभ होय परहेलना-क्रि० स० [ म० प्रहेलन ] निरादर करना । तिरस्कार आई।—जायसी (शब्द॰) । (ख) तोहि कोन मति रावन करना । उ०—मै पिउ प्रीति भरोसे परव किन्ह जिय मांह । आई । आजु कालि दिन चारि पांच मे ल का होत पराई।- तेहि रिस हौं परहेली रूसेउ नागर नाह।-जायसी सूर (शब्द॰) । २ जो आत्मीय न हो। दूसरा । विराना । (शब्द०)। उ०—मैने फिर लिखवाया कि तू'मा जा, घर मे वसना ठीक परहोंक-सशा पुं० [देश॰] पहली विक्री । बोहनी। उ०-जइसन है । पराई जगह के पैर नही होते ।-पिंजरे०, पृ० ६३ । परहोंक तइसन वीक ।-विद्यापति, पु० २७३ । पराक-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १ मनु प्रादि स्मृतियो के अनुसार एक 1