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पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१३२

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पराक २०४१ परातपर प्रकार का कृच्छ व्रत जो यतात्मा और प्रमादरहित होकर लागी। प्रीति नदी महं पांव न बोरथो दृष्टि न रूप परागी। और चार दिनो तक निराहार रहकर किया जाता था। सूरदास अवला हम भोरी गुर चौंटी ज्यो पागी।—सूर इसका विधान धर्मशास्त्रो में प्रायश्चित्त के प्रकरण मे है । २ (शब्द०)। खड्ग । ३ एक रोग का नाम । ४ एक क्षुद्र जतु । परागराजा-सञ्ज्ञा पु० [सं० प्रयागराज ] दे० 'प्रयाग' । उ०- पराकर-वि० लघु । छोटा [को०] । महाराज, प्रस्थान तो परागराज है।-रगभूमि, भा॰ २, पराकरण-सज्ञा पुं० [स०] १ अपेक्षा करना । २ दूर करना । ३, पृ० ४६६. अस्वीकार करना [को०] । पराङ्मुख-वि० [सं०] १. मुंह फेरे हुए । विमुख । २ जो ध्यान न पराकाश-सञ्ज्ञा पुं० [स०] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दूरदर्शिता । दे । उदासीन । ३ विरुद्ध । पराकाष्ठा-सज्ञा स्त्री॰ [स०] १ चरम सीमा। सीमात । हद । पराच-वि० [स०] १ प्रतिलोमगामी । उलटा चलनेवाला। २ अंत । २ गायत्री का एक भेद । ३ ब्रह्मा की आधी आयु । उद्धवगामी। ३ अप्रत्यक्षगम्य । परोक्षगम्य । ४ वाह्योन्मुख । पराकोटि-सज्ञा स्त्री० [म०] १ पराकाष्ठा। २ ब्रह्मा की पराचित'-वि० [सं०] दूसरो द्वारा प्रतिपालित । परपोषित [को॰] । आधी आयु। पराचित-सञ्ज्ञा पु० दास । गुलाम [को०] । पराक्-वि० [स०] दे० 'पराच्' । पराचित -सञ्ज्ञा पु० [ स० प्रायश्चित्त ] ', 'प्रायश्चित्त'। पराक्पुष्पी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] अपामार्ग । चिचडी। चिरचिटा। पराचीन- वि० [ स० प्राचीन ] दे० 'प्राचीन' । उ०—तब तुव पराक्रम-सचा पु० [सं०] [वि० पराक्रमी ] १ बल । शक्ति । अल्हन जल आनहि पराचीन यह वृत्त ।-५० रासो, पृ० सामथ्यं । २. अभियान । आक्रमण (को०) । ३ विष्णु (को०)। ११३॥ ४ पुरुपार्थ । पौरुप । उद्योग । पराचीन–वि० [सं०] १ पराङ्मुख । २ अनुपयुक्त । ३ वहिर्मुख मुहा०—पराक्रम चलना = पुरुषार्थ या उद्योग हो सकना । [को०] । पराक्रमी-वि० [ स० पराक्रमिन् ] १ बलवान् । वलिष्ठ । २ पराछिता-सचा पुं० [ स० प्रायश्चिच ] दे॰ 'प्रायश्चित्त'। उ०- वीर । वहादुर । ३. पुरुषार्थी । ४. उद्योगी । उद्यमी । याको धूर गुनौरे डारो। दूत पराछित या विधि मारो।- पराक्रांत-वि० [ स० पराक्रान्त ] दे० 'पराक्रमी' । २ दूसरो द्वारा कबीर सा०, पृ० ५३६ । आक्रात या पराजित । ३ जिसका मुख मोड दिया गया पराजय-सचा त्री० [स०] विजय का उलटा। हार । शिकस्त । हो [को०] । क्रि० प्र०—करना ।—होना । पराग'-सञ्ज्ञा पुं० [स०] वह रज या धूलि जो फूलो के बीच लबे पराजिका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० उपराजिका या हिं० परज] परज नाम केसरो पर जमा रहती है । पुष्परज । की रागिनी। विशेष-इसी पराग-के फूलो के बीच के गर्भकोशो मे पड़ने से पराजित-वि० [स०] परास्त । पराभूत । हारा हुआ। गर्भाधान होता और बीज पडते हैं । पराजिष्णु-वि० [स०] १ पराजय योग्य । जिसे परास्त किया जा २ धूलि । रज । ३ एक प्रकार का सुगघित चूर्ण जिसे लगाकर सके । २ पराजित । परास्त [को०] । स्नान किया जाता है। ४ चदन । ५ उपराग । ग्रहण । पराजै+-सज्ञा सी० [स० पराजय ] दे० 'पराजय'। उ०-जीत ६ कपू ररज । कपूर की धूल या पूर्ण । ७ विख्याति । ८ लीधी जमी कठथी जेणरी, पराजे हुई नह फतै पाई।-रघु० एक पर्वत । ६ स्वच्छद गति वा गमन । रू०, पृ० ३१ । परागार-सञ्ज्ञा पु० [ स० प्रयाग ] दे० 'प्रयाग' । उ०-गया गोमती काशि परागा। होइ पुष्य जन्म शुद्धि अनुरागा।-कवीर पराडीन-सज्ञा पु० [सं०] पश्चाद्गति । पीछे चलना या उडना [को॰] । सा०, पृ०४०२। पराण-सञ्ज्ञा पु० [स० प्राण ] दे॰ 'प्राण'। उ०-साई तेरे नांव परागकेसर पुं० [म.] फूलो के बीच मे वे पतले लवे सूत परि सिर जीव करूं कुरवान । तन मन तुम परि वारण, जिनकी नोक पर पराग लगा रहता है। इन्हें पौधों की पु० दादूपिंड पराण ।-दादू०, पृ० ३८१ । जननेंद्रिय समझना चाहिए। पराणसा-सशा स्त्री० [स०] उपचार। चिकित्सा । दवा करना। परागत-वि० [सं०] १ घिरा हुआ। प्रावृत । २ मरा हुआ। [को०] । मृत । ३ विस्तृत (को०] । परात–सञ्चा खी० [स० पात्र, तुल० पुरी० प्राट ] थाली के आकार परागति-सशा स्त्री० [सं०] गायत्री। का एक बडा बरतन जिसका किनारा थाली के किनारे से परागना-क्रि० स० [ स० उपराग] अनुरक्त होना । उ० ऊँचा होता है। यह आटा गूघने, हाथ पैर धोने आदि के ऊधो तुम हो अति वड भागी । अपरस रहत सनेह तगा ते काम पाता है। उ०-कोउ परात कोउ लोटा लाई । साह नाहिन मन अनुरागी। पुरइन पात रहत जल भीतर ता रस सभा सव हाथ धोवाई।-जायसी (शब्द॰) । देह न दागी। ज्यो जल महि तेल की गागरि वूद न ताको परावपर-वि० सञ्चा पु० [सं० परात्पर ] दे० 'परात्पर' । उ०-