पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिचारित २०४६ परिच्छेद परिचारित-सज्ञा पु० [स०] खेल । क्रीडा । मनोरजन । परिचोक-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं० परिचय ज्ञान । उ०—करतल निरखि परिचारी-वि० [सं० परिचारिन् ] १ टहलनेवाला । वह जो भ्रमण कहत सब गुन गन बहुतनि परिचो पाई। —तुलसी (शब्द०)। करता हो। २ सेवा करनेवाला । टहल्लू । 'चाकर । परिच्छद-सचा पु० [सं० परिच्छन्द ] वस्त्र । पहरावा । पोशाक । परिचार्य-वि० [स०] सेव्य । सेवा करने योग्य । जिसकी सेवा करना परिच्छद-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] १ कपडा जो किसी वस्तु को ढक या उचित हो। छिपा सके । आच्छादन । ढाकनेवाली वस्तु। पट । जैसे, लिहाफ परिचालक-वज्ञा पु० [सं०] १ चलानेवाला । चलने के लिये प्रेरित खोल, झूल आदि । २ वस्त्र । पहनावा । पोशाक । उ०- करनेवाला। २ किसी काम को जारी रखने तथा आगे आपने जो मूल्यवान् परिच्छद मुझे पहनाया है। प्रेमघन०, बढानेवाला । सचालक । ३. गति देनेवाला । हिलानेवाला । भा० २, पृ० ३६८ । ३ राजचिह्न। ४. राजा आदि के सव समय साथ रहनेवाले नौकर । अनुचर । ५. परिजन । परि- परिचालकता-सज्ञा स्त्री० [भ०] परिचालन करने की क्रिया, भाव वार। कुटुब । ५ असवाव । सामान । ७. प्रात । प्रदेश । अथवा शक्ति। विशेष-नागौद रियासत के खोह नामक गांव मे जो ताम्र- परिवालन--सञ्ज्ञा पुं० [स०] [वि० परिचालित ] १. चलाना । पत्र मिला है, उसमे इस शब्द का प्रयोग पाया गया है। वहाँ चलने के लिये प्रेरित करना। चलने में लगाना। २ कार्य लिखा है-दक्षियोन बलवर्मा परिच्छद । का निर्वाह करना । कार्यक्रम को जारी रखना । जैसे,--इस पत्र का परिचालन उन्होने बडी ही उत्तमता के साथ किया । परिच्छन्न-वि० [सं०] १. ढका हुआ । छिपा हुआ। ३ जो कपडे ३. हिलाना । गति देना । हरकत देना। पहने हो । वस्त्रयुक्त। वस्त्रादि से सज्जित । ३. जो साफ परिचालित-वि० [स०] १ चलाया हुआ। चलने मे लगाया हुआ । किया हुआ हो। ४. परिच्छद ( सेवक, अनुचर आदि ) से २ निर्वाह किया हुआ । बराबर जारी रखा हुआ। ३ युक्त (को०)। हिलाया हुआ । जिसे गति दी गई हो । परिच्छा-सञ्ज्ञा जा [ स० परीक्षा ] दे० परीक्षा' । परिचिंतन-नशा पु० [स० परिचिन्तन ] १ स्मरण करना । २, परिच्छिति-सञ्ज्ञा सो [सं०] १ सीमा। अवधि । इयत्ता। हद । ३. दो पदार्थों को बिलकुल अलग अलग कर देना। सीमा चितन करना । विचार करना [को०] । द्वारा दो वस्तुप्रो को एक दूसरी से विलकुल जुदा कर परिचित-वि० [स०] १. जिसका परिचय हो चुका हो। जाना बूझा । ३ विभाग । बाँट । ४ यथार्थ व्याख्या । सूक्ष्म ज्ञात । मालूम । जैसे,—इस पुस्तक का विषय मेरा परिचित व्याख्या (को०)। नही है। २ जिसको परिचय हो चुका हो। वह जो किसी को जान चुका हो । अभिज्ञ । वाकिफ। जैसे,—मैं उनके स्व- परिच्छिन्न-वि० [ मं०] १ परिच्छेदविशिष्ट । सीमायुक्त । परि- भाव से बिलकुल परिचित नही हूँ। ३ जान पहचान रखने मित । मर्यादित । २.विभक्त । विभाजित । अलग अलग वाला । मिलने जुलनेवाला । मुलाकाती। जैसे,- मेरी परि किया हुआ। ३ चारो ओर से कुछ कटा हुप्रा (को०)। ४. चित मडली अब इतनी बड़ी हो गई है कि मिलने जुलने मे जिसका उपचार किया गया हो (को०)। ही प्राय मेरा सारा समय लग जाता है। ४ जैन दर्शन के परिच्छेद-सशा पुं० [स०] १ काटकर विभक्त करने का भाव । अनुसार वह स्वर्गीय आत्मा जो दो बार किसी चक्र में प्रा खड या टुकडे करना । विभाजन । २ अथ या पुस्तक का ऐसा चुकी हो । ५ इकट्ठा किया हुआ । ढेर लगा हुआ। सचित । विभाग या खड जिसमे प्रधान विषय के अगभूत पर स्वतत्र ६ किसी काम को बार बार करना । अभ्यास । मश्क (को०) । विषय का वर्णन या विवेचन होता है। ग्रथ का कोई स्वतत्र परिचिति-मज्ञा स्त्री॰ [स] परिचय । ज्ञान । अभिज्ञता । जानकारी। विभाग। ग्र थविच्छेद । न थसघि । अध्याय । जैसे,-अमुक परिचिह्नित-वि० [सं०] हस्ताक्षरयुक्त को०] । पुस्तक मे कुल १० परिच्छेद हैं। परिचीर्ण-वि० [स०] सेवित । जिसकी सेवा की गई हो (को०] । विशेष-ग्न थ के विषय के अनुसार उसके विभागो के नाम भी भिन्न भिन्न होते हैं। काव्य मे प्रत्येक को सर्ग, कोष मे वर्ग, परिचुबन-सशा पुं० [सं० परिचुम्बन ] [ वि० परिचु वित ] प्रेमपूर्वक अलकार में परिच्छेद तथा उच्छवास, कथा मे उद्घात, पुराण घुवन । भरपूर प्रेम या स्नेह से चु वन करना । और सहिता आदि मे अध्याय, नाटक मे प्रक, तत्र मे पटल, परिचुंबित-वि० [सं० परिचुंयित ] अतिशय प्रेम के साथ चूमा ब्राह्मण मे काड, सगीत मे प्रकरण और भाष्य मे पाह्निक गया [को०] । कहते हैं । इसके अतिरिक्त पाद, तरग, स्तवक, प्रपाठक, स्कंध, परिचय-वि० [सं०] १ परिचय योग्य । जान पहचान करने मजरी, लहरी, शाखा आदि भी परिच्छेद के स्थानापन्न योग्य । साहब सलामत या राहोरस्म रखने योग्य । २. एकत्र हुआ करते हैं। परिच्छेद का नाम विषय के अनुसार नहीं करने योग्य । ढेर लगाने योग्य । सचय करने योग्य । किंतु सख्या के अनुसार होता है, जैसे, नवा परिच्छेद, परिचौ-सज्ञा पु० [ स० परिचय ] दे० 'परिचय' । उ०-जल दसवाँ परिच्छेद । जैसे तूंवा तिरे, परिचे पिंह जीव नहिं मरे ।-रे० बानी, ३. सीमा । इयत्ता । अवधि । हद । दो वस्तुओ को स्पष्ट रूप से पृ०२। मलग अलग कर देना। सीमानिर्धारण द्वारा दो वस्तुओ को देना ।