पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१६७

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परूँगा २८७६ परेष्टुका लेइ पित्र को छोडे पानी। करे पित्र से भूत वड़ो, मूरख परेसभा-सज्ञा पुं॰ [स० परेतभर्तृ ] यम [को०] । अज्ञानी।-पलट्, भा०१, ८६ । परेतराज-सचा पुं० [मं०] यमराज [को०] । परूँगा-सञ्ज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का शाहबलूत जो हिमालय पर परेतवास-सञ्चा पुं० [सं०] श्मशान । मरघट (को०] । होता है। परेवा-सचा पुं० [सं० परित (= चारो ओर)] १ जुलाहों का परूष-सझा पुं० [सं०] फालसा । एक प्रौजार जिसपर वे सूत लपेटते हैं। २ पतंग की डोर परूसक-मक्षा पुं० [सं०] दे० 'परूष' । लपेटने का वेलन जो वास की गोल पोर पतली चिपटी परे-अव्य० [सं० पर ] १ दूर । उस अोर । उघर । २ अतीत । तीलियो से बनता है। बाहर । अलग । जैसे,—ब्रह्म जगत् से परे है। विशेष-इसके वीचो बीच एक लवी और कुछ मोटी वास को क्रि० प्र०—करना ।—रहना । —होना । छड होती है जिसके दोनो किनारो पर गोल चक्कर होते हैं । ३ कार । ऊँचे । बढ़कर । उत्तर । ४ बाद । पीछे । इन चक्करो के बीच पतली पतली तीलियो का ढांचा होता मुहा०—परे परे करना = दूर हटाना । हट जाने के लिये कहना। है। इसी ढांचे पर होरी लपेटी जाती है। परेता दो प्रकार परे बैठाना = मात करना। बाजी लेना। तुच्छ या छोटा का होता है। एक का ढांचा सादा और खुला होता है मौर साबित करना । जैसे,—उसने ऐसा भोजन पकाया कि रसोइए दूसरे का ढांचा पतली चिपटी तीलियो से ढंका रहता है । को भी परे बिठा दिया। पहले को चरखी और दूसरे को परेता कहते हैं । परेई-सञ्ज्ञा स्त्री० [हिं० परेवा ] १ पहुकी। फाखता। डौकी।- परेद्यवि-प्रव्य[सं०] दे० 'परेछु' । उ०—पट पाँखे भख कांकरे, सदा परेई सग। सुखी परेवा परेद्य - अव्य० [ सं० परेगुस् ] दूसरे दिन । पानेवाला दिन । कत जगत में तूही एक बिग ।-विहारी (शब्द०)। २ मादा का दिन को। कबूतर । कबूतरी। परेमा सझा पुं० [सं० प्रेम ] दे० 'प्रेम' । उ०-मुहमद मद जो परेखना-क्रि० स० [सं० परीपण या प्रेक्षण ] १ सब पोर या सब परेम था किएँ दीप तेहि राख । सीस न देव पतंग होइ तव पहलुओं से देखना । परखना । जांचना । परीक्षा करना । २ लग जाइ न चाखि । —जायसी प्र० (गुप्त), पृ० २२५ । प्रतीक्षा करना । अासरा देखना । उ०-तब लगि मोहिं परे- परेरा-तशा पुं० [सं० पर (= दूर, ऊँचा) +पर ] आकाश । मास- खहु भाई । -तुलसी (शब्द॰) । मान । उ०-( क ) सूर यो सुमेर को, नक्षत्र ध्रुव फेर को, परेखा-सशा पुं० [सं० परीक्षा] १ परीक्षा । जाँच । २ विश्वास । ज्यौं पारद परेर को ज्यों सागर मयक को। (शब्द०) कागा प्रतीति । उ०-( क ) समुझि सो प्रीति कि रीति श्याम की कर कगन चूयि रे उहि रे परेरो जाय । मैं दुख दाधी विरह सोइ बावर जो परेखो तर पाने ।—तुलसी (शब्द०)। (ख) की तू दाघा मांस न खाय ।-कवीर (शब्द०)। दूत हाथ उन लिखि जो पठयो ज्ञान को गीता को। तिनको परेरा-सञ्ज्ञा पुं० [हिं० फरहरा ] छोटी झंडी जो किसी किसी कहा परेखो कीजे कुविजा के मीता को।—सूर (शब्द०)। जहाज के मस्तूल के सिरे पर लगी रहती है । फरेरा । फर- ३ पछतावा । अफसोस । खेद। विषाद। उ०-(क) ग हरा। (लश)। रिझवार न हिय रहै, यहै परेखो एक । वारन को मन एक परेली-सञ्ज्ञा पुं० [] ताठव नृत्य का प्रथम भेद, जिसमें अगसचालन इत उत है अदा अनेक ।-रसनिधि ( शब्द०)। (ख) अधिक मौर अभिनय थोडा होता है। इसका एक नाम इतनो परेखो समरथ सब भाँति प्राजु कपिराज सांची कही देसी भी है। को तिलोक तोसो है । —तुलसी ( शब्द०)। (ग) अरे परेवा-सज्ञा पुं० [० पारावत ] [ स्त्री० परेई ] १ पड़क पक्षी । परेखो को करे तुही विलोकि विचार । फेहि नर केहि सर पेडकी । फाखता । २ कबूतर। उ०-हारिल भई पथ मैं राखियो खरे बढे पर पार ।-विहारी ( शब्द०)। सेवा । अव तोहि पठयो कौन परेवा । —जायसी (शब्द०)। परेग-सञ्ज्ञा स्त्री० [अ० पेग ] लोहे की कील । छोटा काटा। ३ कोई तेज उडनेवाला पक्षी । ४ तेज चलनेवाला परेट-सज्ञा पुं० [अ० परेड ] दे० 'परेड' । पत्रवाहक । दूत । चिट्ठीरसा । हरकारा । परेड-सञ्ज्ञा पुं० [म. ] १ वह मैदान जहाँ सैनिको को युद्धशिक्षा परेश-सज्ञा पुं० [सं०] १ ईश्वर । उ०- परमानद परेश पुराना । दी जाती है। २ सैनिक शिक्षा। कवायद । युद्धशिक्षा -तुलसी (शब्द०)।२ विष्णु । ३ ब्रह्मा। का अभ्यास। परेशान-वि० [फा०] [ सज्ञा परेशानी ] दुःख या सताप के परेत-सज्ञा पुं० [सं०] १ एक भूत योनि का नाम। २ प्रेत। ३ कारण व्यग्र । व्याकुल । उद्विग्न । मुरदा। मृतक। परेशानी-सञ्ज्ञा स्त्री० [फा०] व्याकुलता । उद्विग्नता । व्यग्रता । परेतकल्प-सञ्ज्ञा पुं॰ [स०] मृतप्राय (को०] । बहुत अधिक घबराहट । हैरानी । परेतकाल-पञ्चा पुं० [सं०] मृत्यु का समय । मृत्युकाल (को०] । परेष्टि-सञ्ज्ञा पु० [सं०] ब्रह्मा का नाम (को०] परेतभूमि-सज्ञा स्त्री॰ [स०] श्मशान । मरघट (को०] । परेष्टुका-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो कई बार व्याई हो [को०] ।