पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१७१

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जाती है। पर्नर २८० पर्यवसान पर्न १२–सशा पुं० [सं० पर्ण ] पत्ता । पर्ण । पत्र । पर्गकपादिका-सया स्त्री॰ [ स० पर्यपादिका ] सुअरा सेम । काले रग की सेम । पर्नन-सज्ञा सी० [सं० परिणयन (= विवाह), प्रा० परिण] विवाह । उ० --पढेन वेद वामन सब, वर कन्या के नाउँ । रहेउ पर्यंकवध-सज्ञा पु० [स० पर्यवन्ध] दे० 'अवसक्थिका' [को०] । पर्ननै रित्त जो, भएउ सकल तेहि ठाउँ।-इंद्रा०, पृ० १७४ । पर्णकवधन-सझा पु० [ स० पर्यङ्कबन्ध ] जघा जानु और पीठ का पर्नसालिका-सज्ञा स्त्री० [स० पर्णशालिका ] पर्णशाला । पत्तो से वस्य से बांधना को० । बनाई कुटिया। उ०-निपट गहन गद्दबरु तरु छाँही । पर्न- पर्णकभोगी संज्ञा पुं॰ [ स० पर्यभोगिन् ] सर्प की एक जाति । सालिका जहां तहां ही।-घनानद, पृ० २६० । एक प्रकार का सांप को०] । पर्निया-सज्ञा पुं० [फा० पर्नियाँ, परनियाँ ]एक प्रकार का चित्रित पर्यत'-अव्य० [ स० पर्यन्त ] तक । लौ । रेशमी वस्त्र । उ०-जिसे तूने अजर जामा पिन्हाना । हवस पर्यतर-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ अतिम सीमा । २ समीप । पास । ३. उसको न पोशिश पनिया पर। -कवीर म०, पृ० ४४४ । पावं। वगल । पपंचा-सञ्ज्ञा पुं० [स० प्रपञ्च, पुं० हिं० परपच] दे० 'प्रपच' । उ०- यौ०-पर्यंतदेश = दे० 'पर्यंतमू । पर्यंत पर्वत = समीपस्थ पहाड़। तुम्हें इसमें पपंच की गघ तो नही लग रही है। -नई०, पर्यंतभू, पर्यंतभूमि = समीप का मूभाग। पास की जमीन । पृ० १०४। पर्ण-संज्ञा पुं॰ [स०] १ नई घास। हरी घास। २ पगुपीठ । पगु पर्यंतिका-सज्ञा स्त्री० [सं० पर्यन्तिका ] नैतिक पतन । सदाचार- हीनता । गुणो का विनाश (को०] । के बैठने का स्थान । ३ एक प्रकार की छोटी गाडी जिसपर वैठकर पगु इधर उधर जाते हैं । ४ भवन । घर [को॰] । पर्यग्नि-सज्ञा पु० [ स०] १ यज्ञ के लिये छोडे हुए पशु की अग्नि लेकर परिक्रमा करना। २ वह अग्नि जो हाथ में लेकर यज्ञ पर्पट-सञ्ज्ञा पु० [सं०] १ पित्तपापहा । २ पापड । की परिक्रमा पर्पटट्ठम-संज्ञा पुं० [ म०] जलकुभी। पर्यटक-वि० [सं०] पर्यटन करनेवाला। भ्रमण करनेवाला। घुम- पर्पटी-सज्ञा स्त्री॰ [स०] १ सौराष्ट्र देश की मिट्टी। गोपीचदन । क्कड । उ०-कल्पना में निरवलब, पर्यटक एक अटवी का २ पानही। ३ पपडी। ४ पर्पटी रस । अज्ञात, पाया किरण प्रभात ।-अनामिका, पृ०७६ । पर्पटीरस-सज्ञा पुं० [ स०] वैद्यक मे एक प्रकार का रस जो पारे पर्यटन-सञ्ज्ञा पुं० [म०] भ्रमण । घूमना फिरना। और गधक को भंगरेया के रस में खरल करके घोर तवे तथा लोहे की भस्म मिलाकर बनाते हैं । पर्यनुयोग-रज्ञा पुं० [ सं०] १ चारो ओर से वा सभी प्रकार से पर्परी-मशा स्त्री॰ [ स०] केशगुच्छ । वेणी । कवरी [को०) । पूछना । २ उपालभ । ३ जिज्ञासा [को०)। पपेरीक-सशा पुं० [स०] १ सूर्य । २. अग्नि । ३ जलाशय । पर्यन्य-सज्ञा पु० [स०] १ इद्र । २ गरजता हुआ बादल । ३ बादल की गरज। पर्परीण-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] १. सधि । पर्व । २ पान के पत्तो के नाल का रस । ३ पान की नस। पान के पत्तो की नसें। ४ पर्यय-सञ्ज्ञा पुं० [ म०] १ शास्त्र अथवा लोकाचारविहित । किसी उत्तरायण में घृत द्वारा शिव का पूजन [को०] । नियम या क्रम का उल्लघन । विपर्यय । गडवडी। २. व्यतीत पर्वधा-सा पुं० [सं० प्रवन्ध ] २० 'प्रवध' । उ०-शादी तो होकर होना । बीतना। नष्ट होना (समय के लिये)। ३ विनाश । रहेगी या माहुर का पबंध करूं कही से और खिला हूँ नाश (को०)। छोकरी को।-नई०, पृ०७। पर्ययण-सज्ञा पु० [ स०] १ चारो ओर घूमना। परिभ्रमण । २ पर्वा-सचा पुं० [ स० पर्व ] दे० 'पर्व'। घोडे की काठी । जीन को०] । पर्वत-सशा पु० [सं० पर्वत ] दे० 'पवंत'। पर्यवदात-वि० [स०] १ विशुद्ध । निर्मल । अति स्वच्छ । उ० - पर्बतो-वि० [मं० पर्वतीय ] पहाडी । पहाड सबधी। इस प्रकार समाहित, परिशुद्ध, पर्यवदात, निर्मल, विगत , पर्वला-वि० [स० प्रवल ] दे॰ 'प्रवल' । उ०-कबीर माया पर्वल, उपक्लेश चित्त से पूर्वभव की अनुस्मृति का ज्ञान प्राप्त किया। निवल हों, क्यो मन इस्थिर होय ।-प्राण०, पृ० १६७ । -हिंदु० सभ्यता, पृ० २४० । २ सुज्ञात । सुविदित । सुपरि- चित (को०)। पर्म:-वि० [सं० परम ] * 'परम' । उ०-दशवें भेद पर्म धाम की वानी, साख हमारी निर्णय ठानी।-फबीर सा०, पृ० ६३४ । पर्यवरोध-सञ्चा पु० [ स०] बाधा । विघ्न । पर्यफ-सज्ञा पुं० [सं० पर्यफ ] १ पलंग। २ शिविका। पालकी पर्यवलोकन-मज्ञा पु० [सं०] निरीक्षण। चारो ओर देखना। (को०) । ३. योग का एक प्रासन । ४ एक प्रकार का वीरा- उ०—पर्यवलोकन करके भुवन फिर वही का वहीं पा गया सन । ५. नर्मदा नदी के उत्तर मोर के एक पर्वत का नाम था। -नदी०, पृ० ४० । जो विध्य पर्वत का पुत्र माना जाता है। पर्यवशेष-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] समाप्ति । प्रत । अवसान [को०] । पर्यकप्रथि-सश सी० [सं० पर्यवप्रन्थि ] अवसक्यिका । पर्यंक- पर्यवष्ट भन-सज्ञा पु० [ पर्यवष्टम्भन ] घेरना । प्रावृत करना [को॰] । वध [को०। पर्यवसान-सञ्ज्ञा पु० [स०] [ वि० पर्यवसित ] १ मत। समाप्ति ।