पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर भाग 6.djvu/१७६

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" पर्वा' २८८ पलंग पर्वा'-सज्ञा स्त्री॰ [फा० परवा ] १ दे० 'परवाह'। पवध-मशा पुं० [स०] कुठार । पर्वा-यश स्त्री० [ म० प्रतिपदा, प्रा० पढ़िवा, हिं० परवा ] दे० पर्प-सञ्ज्ञा पु० [स०] गुच्छ । स्तबक [को०] । 'प्रतिपदा'। पर्प-वि० कठोर । उन । तीक्ष्ण । जैसे, वायु [को॰] । पर्वानगी-मशा पु० [फा० परवानगी ] दे० 'परवाना' । पर्षद्-सशा स्त्री० [सं०] १ परिषद् । २ चारो वेद के ज्ञाताओं पर्वाना-सशा. पुं० [फा० परवाना ] दे० 'परवाना' । उ०-पान की सभा या समाज (को०)। पर्वाना पाय, तौ नाम सुनावही । सतगुरु कहैं कबीर अमर पर्षद्वल-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] परिषद का सदस्य । पारिषद् । सुख पावही।-कवीर० श०, भा० ४, पृ० ६ । पसराम-सच्चा पुं० [स० पशुराम ] दे० 'परशुराम'। उ०—न, पर्वावधि-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ म० ] गाँठ। ग्रथि । जोड । २ पर्वकाल या छत्री छितान, दई विप्र दान । सुरान प्रमान, नमो पर्स राम । उसकी अवधि [को०] । -पृ० रा०,२।१७। पर्वास्फोट-सज्ञा पु० [ स०] उँगलियो को चटकाना । उंगली चट पर्साद-सज्ञा पुं० [ म० प्रसाद ] दे० 'प्रसाद' । उ०-अमरित साहु काने की ध्वनि [को०] । जाकर भाभी का प्रसाद पा आते। -नई०, पृ० ८२ । पर्वाह'-सशा पु० [सं०] पर्व का दिन । वह दिन जिसमे कोई पर्व हो। पर्हेज-सज्ञा पुं० [फा० पर्हेज ] १ राग आदि के समय अपथ्य पर्वाह-वज्ञा स्त्री॰ [फा० परवा ] ३० 'परवाह'। वस्तु का त्याग । रोग के समय सयम । जैसे,-दवा तो, पर्विणी-सञ्ज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पर्व' । खाते ही हो पर साथ में पहेज भी किया करो । २ वचना। पर्वित-गज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली। अलग रहना । दूर रहना । जैसे,—दुरे कामों से हमेशा पहँज करना चाहिए। पर्वेश-सज्ञा पु० [सं०] फलित ज्योतिष के अनुसार कालभेद से ग्रहण समय के अधिपति देवता। पर्हेजगार---वि० [फा० पर्हेज़गार ] पहेज करनेवाला। विशेष-वृहत्सहिता के अनुसार ब्रह्मा, चद्र, इ द्र, कुवेर, वरुण, पलंकट-वि० [सं० पलकट ] डरपोक । भीरु । भयशील । अग्नि और यम ये सात देवता क्रमश छह छह महीने के ग्रहण पलकर-सज्ञा पु० [सं० पलहर ] पित्त । के अधिपति देवता हा करते हैं । ये ही सातो देवता 'पर्वेश' पलंकष--सञ्ज्ञा पु० [ स० पलक्कप ] गुग्गुल । गूगल । कहलाते हैं । भिन्न भिन्न पर्वेश के समय ग्रहण होने का भिन्न पलंकषा-सशा खी० [सं० पलङ्कपा ] १ गोखरु । २ रास्ना । भिन्न फल होता है। ग्रहण के समय ब्रह्मा अधिपति हो तो ३ गुग्गुल । ४ टेसू । पलास । ५ लाख । ६ गोरखमु डी। द्विज और पशुप्रो की वृद्धि, मगल, आरोग्य और धन सपत्ति ७ मक्खी। की वृद्धि, चद्रमा हो तो आरोग्य और धनसपत्ति की वृद्धि के पलकपी--सञ्ज्ञा स्त्री० [स० पलकपी ] दे० 'पलकपा'। साथ साथ पडितो को पीडा और अनावृष्टि, इद्र हो तो राजाओ मे विरोध, शरद ऋतु के घान्य का नाश और अमगल, कुवेर पलका'-सज्ञा स्त्री० [ हिं० पर + लका ] बहुत दूर का स्थान । अति दूरवर्ती स्थान । उ० तेहि की आग ओहू पुनि जरा। हो तो धनियो के धन का नाश और दुर्भिक्ष, वरुण हो तो लका छोडि पलका परा । —जायसी (शब्द॰) । राजापो का अशुभ, प्रजा का मगल और धान्य की वृद्धि, अग्नि हो तो घान्य, आरोग्य, अभय और अच्छी वर्षा, और यम हो विशेष-प्राचीन भारतवासी लका को बहुत दूर समझते थे इस तो अनावृष्टि, दुभिक्ष और घान्य की हानि होती है। इसके कारण अत्यत दूर के स्थान को पलका (परलका) जिसका अतिरिक्त यदि पोर समय मे ग्रहण हो तो क्षुधा, महामारी अर्थ है 'लका से दूर या दूर का देश' बोलने लगे । अव भी और अनावृष्टि होती है। गांवो मे इस शब्द का इसी अर्थ में व्यवहार होता है । पर्श--II पुं० [सं०] एक प्राचीन योद्धा जाति का नाम जो वतमान पलंका-नशा पुं० [ स० पत्यक ] पल्यफ । पलग । उ०-चारिउ अफगानिस्तान के एक प्रदेश में रहती थी। पवन झकोरे आगी। लका दाहि पलका लागी।—जायसी पर्शनीया-वि॰ [स० रपर्शनीय ] छूने योग्य । स्पर्श करने योग्य । ग्र०, पृ०१५६ । पशु-सज्ञा पुं॰ [ म०] १ फरसा । परशु । २ पसली। पांजर । ३ पलग-सन्ना पुं० [सं० पल्य] १ अच्छी चारपाई । अच्छे गोडे, पाटी अस्म । हथियार [को०] । और बुनावट की चारपाई। अधिक लवी चौडी चारपाई । पशुका-सञ्ज्ञा स्त्री॰ [ स० ] छाती पर की हड्डियां । पिंजर। पर्यंक । पल्यक । खाट । पशुपाणि-तज्ञा पु० [ स०] १ गणेश । २ परशुराम । क्रि० प्र०-विछाना। पशुराम--सज्ञा पुं० [सं०] परशुराम । मुहा०-पलग को लात मारकर खड़ा होना = (१) छठी, वरही पशुस्थान-सञ्ज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन देश का नाम जिसमें आदि के उपरांत सौरी से रिसी स्त्री का भली चगी वाहर पशु जाति के लोग रहा करते थे। अाजकल यह प्रात पाना। निरोग और भली चगी सौरी से बाहर माना। वर्तमान अफगानिस्तान के प्रतर्गत है। सौरी काल समाप्त कर बाहर निकलना ( वोलचाल )। ६-२१